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- धर्मरत्नाकरः
[८.३४601) यस्मादिदं विशेषाद्विद्वज्जनहृदयहारि निःशेषम् ।
पूर्वं मयैव निगदितमतिसर्गसमर्थनावसरे ॥ ३४ 602) कियन्तो ऽन्ये न कथ्यन्ते पुण्यभाजो जिनागमे ।
साधुरोगांश्चिकित्सित्वा लेभिरै कमलामलम् ॥ ३५ 603) भग्नं समारचयते सकलं स कृत्यं
संजीवयत्यपि मृतं स नरमधानः । आपद्गतं च परिपाति स एव नूनं .
यः संचिकित्सति गणं गदखेदिताङ्गम् ॥३६ 604) चारित्राचरणप्रणाशनिपुणान् क्लीबत्वसंदीपकान्
रोगौघान् समपाकरोति विविधैः पथ्यैस्तथा भेषजैः। स्वेनान्यैर्नरदेवसौख्यममलं लब्ध्वा जगत्पूजितो । धन्यः श्रीजयसेनमूरिविनुतं नीरोगधामाञ्चति ॥ ३७
अष्टमो ऽवसरः ॥८॥ व्यर्थ है और उसका उत्तर भी जो मैंने दिया है वह चबाये हुए को पुनः चबाने के समान है॥३३॥
___ कारण यह है कि विद्वान् जनों के हृदय को हरनेवाला- उसे प्रफुल्लित करनेवालायह सब हो कथन मैं पूर्व में ही दान के समर्थन के प्रकरण में विशेषरूप से कर चुका हूँ ॥ ३४ ॥
जिन्होंने मुनियों के रोगों की चिकित्सा कर अतिशय ऐश्वर्य को प्राप्त किया है ऐसे इतर भी कितने ही पुण्यवान् पुरुषों का जिनागम में कथन किया गया है। उनका कथन हम यहाँ नहीं करते हैं ।। ३५ ॥
__जो रोग से पीडित मुनिसंघ को औषध दान दे कर उसे रोगरहित करता है वह पुरुष प्रमुख टूटे हुए सब कार्य को जोड कर पूर्ण करता है, मृत मनुष्य को जीवित करता है, तथा वह विपत्ति में पडे हुए का निश्चय से रक्षण करता है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ३६ ॥
__जो स्वयं अथवा अन्य जनों के द्वारा चारित्र के आचरण के नष्ट करने में चतुर व नपुंसकता को - कायरता को - उत्तेजित करने वाले रोग समूहों को अनेक प्रकार के अनुकूल आहारादि तथा औषधियों के द्वारा नष्ट करता है वह धन्य पुरुष लोक पूजित होता हुआ मनुष्य तथा देवों के निर्मल सुख को प्राप्त कर के श्री जयसेनसूरि से प्रशंसित रोगरहित धामको - मोक्ष को -प्राप्त होता है ।। ३७॥
इस प्रकार अष्टम अवसर समाप्त हुआ ॥ ८॥
___३४) 1 दान, D संक्षेपदानसमर्थनावसरे । ३५)1 प्राप्तवन्तः. 2 लक्ष्मी । ३६) 1 रक्षति. 2 मुनि. समूहम्. 3 रोगपीडिताङगम् । ३७) िविनाशप्रवीणान्. 2 सम्यग्विनाशयति. ३ घामामति, D मोक्षं गच्छति ।