SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ - धर्मरत्नाकरः - [८.१९584) श्रीधर्मनामनगरे च महत्तरेण धर्मप्रियक्षितिपतेः सुपरीक्षितश्च । क्षीरानमुख्यमशनं मदनादिहेतु स्त्यक्त्वा तपोधिनिवहो हि महरकण ॥१९ 585) राजा तु ज्ञातवृत्तान्तः क्षीरामाद्यमदीदपत् । माराद्यर्थ न तेषां तन्न गुणार्थ महेरकम् ॥ २० । युग्मम् । 586) नाहारभेषजायं प्रायो मीनध्वजादिदोषार्थम् । आहारंभीपरिग्रहमैथुनसंज्ञाः स्वभावजा यस्मात् ॥ २१ 587) न हि स्वार्थ समुद्दिश्य प्रतिगृह्णन्ति साधवः । दातुरेवोपकाराय गृह्णन्ति सुसमाहिताः ॥ २२ । 588) शिवधर्मे तदुक्तम् - सिंहो बली हरिणशूकरमांसभक्षी वर्षात् प्रियां प्रभजते हि किलैकवारम् । पारावतः खरशिलाकणभक्षणेन कामी भवत्यनुदिनं बत को ऽत्र हेतुः ॥ २२*१ श्रीधर्मनामक नगर में धर्मप्रिय नामक राजा के महेरक नामक महत्तर (प्रधान) ने खीर आदिका आहार कामादिविकारका कारण है, ऐसा समझकर उस के दान का त्याग करके तपस्वि समूह की परीक्षा की। परन्तु राजा को जब यह ज्ञात हुआ तब उसने महेरक से उक्त खीर आदि को तपस्वियों के लिये दिलवाया। ये खीर आदि भोज्य पदार्थ उनके न कामादि विकार के लिये होते हैं और न लाभ के लिये भी होते हैं, ऐसा राजाने कहा ।। १९-२० ॥ आहार और औषध आदि प्रायः कामविकारादि दोष के कारण नहीं हैं। कारण कि आहार, भय, परिग्रह और मैथुन ये चार संज्ञायें (अभिलाषायें) स्वाभाविक हैं ।। २१ ।। ___मुनि स्वार्थ के उद्देश से आहार को नहीं ग्रहण करते हैं, किन्तु वे समाधि अथवा मूलगुणों आदि में तत्पर रहकर दाता के ऊपर उपकार करने के लिये ही उसे ग्रहण करते हैं ॥ २२ ॥ शिवधर्म में कहा गया है - हरिण और शूकर के मांस को खानेवाला बलवान सिंह वर्ष में एक बार ही सिहिनी के साथ संभोग करता है । परन्तु खेद है कि कबूतर तीक्ष्ण शिलाओं के कणों (कंकडो) के भक्षण से प्रतिदिन काम से युक्त होता है, इसमें क्या कारण है ? ॥ २२२१ ॥ १९) 1 PD मन्त्रिणा श्रेष्ठिना वा. 2 माहिरी तया, नीरसेन भुक्त :[?] । २०) 1 दापयामास. 2 कामादि. 3 क्षीरान्नम् । २१) 1 कामादिदोषार्थम् , Dकन्दर्प:. 2 भयम् । २२) 1 D सावधानाः । २२*१) 1 काकर पाथर [?]
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy