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-८. २५.१]
- औषधदानफलम् - 589) संपद्यते च कश्चिदोषो यदि लेशतो महामुनिषु ।
अज्ञानविलासो ऽसौ सुचेतसा चैवमालोच्यम् ॥ २३ 590) जातो महर्षिनिवहेषु तपो ऽमलेषु
चन्द्राङ्ककल्पमलमोक्षणजितो ऽपि । आलोकतें पिबति नैव चकोरवंच्च
पीयूषमोचिकरकल्पगुणांस्तदीयान् ॥ २४ 591) प्रसृतैर्गुणैरनेकैाप्तासु तपोभृतां तरां तनुषु ।
अवकाशं न लभन्ते दोषा घूका इव दिनेषु ॥ २५ 592) तदुक्तम्-- . शमसुखशीलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः । स्थलमपि दहति झषाणां किमत्र पुनरङ्गमगाराः ॥ २५*१
यदि महामुनियों में कुछ थोडा-सा दोष उत्पन्न होता है, तो वह अज्ञान का विलास है, ऐसा विचारशील मनुष्य को विचार करना चाहिये ।। २३ ॥
तप से निर्मल महर्षियों के समूह में चन्द्र के कलंक समान बाहर नहीं फेंक देनेवाला दोष यद्यपि उत्पन्न हो गया तो भी चकोर पक्षी जैसे चन्द्र के कलंक को न देख कर, अमृत को बाहेर छोडने वाली उसकी किरणों को ही ग्रहण करता है, वैसे महामुनियों के अमृतसमान गुण को व्रती ग्रहण करें ॥ २४ ॥
विस्तार को प्राप्त हुए अनेक गुणों से व्याप्त तपस्वियों के शरीर में दोष इस प्रकार से स्थान को प्राप्त नहीं कर पाते जिस प्रकार कि उल्लू दिन में अवकाश को नहीं प्राप्त कर पाते ॥ २५ ॥ कहा भी है -
जिन साधुओं का मन शांतिसुख से समभ्यस्त है उन को जब आहार भी अप्रिय लगता है, तब भला उन्हें काम - विषय भोगादिक – क्या प्रिय लग सकते हैं ? कदापि नहीं। ठीक है-मछलियों के शरीर को जब पृथ्वो भी संतप्त करती है तब फिर महान् अंगार का तो कहना ही क्या है ॥ २५*१॥
२४) 1D जातं. 2 सदृशदोष, D चन्द्रकलङकवत्. 3 D तथा उत्तमजनाः गुणान् आलोकयन्ति नतु गृहन्ति.4D यथा चकोर: विषपानं न करोति अमृतं पिबति. 5 सदृश । २५*१) 1PD अभिलाषाः 2PD मत्स्यानाम् ।
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