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- औषधदानफलम् -.
580 ) दोषा भविष्यन्ति यतीश्वराणां तैर्भेषजैः पुष्टिमतमितीदम् । ज्ञानं कुतः प्रत्युतं मोक्षलक्ष्मीं ते साधयिष्यन्त्यचिरेण किं च ।। १६ 581 ) ब्रह्माण्डशुद्धिरेतेन कुचोद्येन चिकीर्षिता । समग्राश्रमसद्दानत्रतजीवितराक्षसी ।। १७
582 ) तदुक्तम् -
सूक्ष्मक्षिका' तु यद्यत्र क्रियते प्रथमोद्यमे । असौ सकलकर्तव्यविमलोपाय कल्प्यते ।। १७* १
583 ) महास्तिकैस्तत्सकलैरपीष्टं वपुंव्यवद्भिः किल नास्तिक्कैश्च । ततो ऽपरैर्देयमिति प्रसिद्धं महाजनो येन गतः स पन्थाः || १८
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ग्ज्ञान के तथा तपश्चरण के प्रभाव से सुशोभित मुनीन्द्र जन के अन्तःकरणरूप भूमि में यदि वे कामादि दोष उत्पन्न भी होते हैं, तो वे दीर्घकाल नहीं रह सकते हैं ॥ १५ ॥
उन औषधियों के द्वारा पुष्ट हुए मुनीश्वरों के दोष उत्पन्न होते हैं, ऐसा ज्ञान आपको कहाँ से हुआ ? कारण कि वे मुनीन्द्र तो इसके विपरीत शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मी को सिद्ध करनेवाले हैं ॥ १६ ॥
शंकाकारने ऐसी कुशंका के द्वारा उस लोकशुद्धि के करने की इच्छा की है जो कि समस्त आश्रमों, समीचीन दान एवं व्रतों के जीवित को नष्ट करने के लिये राक्षसी के समान है - उन सब को समूल नष्ट करनेवाली है ॥ १७ ॥ सो ही कहा है
यहाँ प्रथम प्रयत्न में ही सूक्ष्मता से विचार किया जाता है, तो वह सब ही करने योग्य कार्यों के विनाश के लिये होगा । अभिप्राय यह है कि दानादि में प्रवृत्त होना यह धर्मा - चरण की प्रथम अवस्था है । इसलिये यदि इसके विषय में भी इतनी गहराई से विचार किया जाता है, तो इससे आगे का सब ही धर्म का मार्ग नष्ट हो जावेगा ।। १७१ ।।
जो अतिशय आस्तिक हैं उन सभी को यह दानादि रूप सत्प्रवृत्ति अभीष्ट है । तथा शरीर की रक्षा करनेवाले – जो अन्य नास्तिक जन हैं वे भी कहते हैं कि दान देना चाहिये । जिस मार्ग से महापुरुष जाते हैं - जैसा वे आचरण करते हैं - उसी मार्ग को समीचीन समझकर ग्रहण करना चाहिये, यह वाक्य प्रसिद्ध भी है ॥ १८ ॥
१६ ) 1 यतीनाम्. 2 PD अधिका । १७ ) 1 कुत्सिताक्षेपेणाद्येन, D कुत्सिताक्षेपेण । १७* १ ) 1 D दृष्टि: । १८ ) 1 रक्षद्भिः ।