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- धर्म रत्नाकरः
576) जल्पन्ति केचित्समयानभिज्ञा न भेषजादे: फलदायि दानम् । कामादिदोषोदयकारणत्वादारम्भजत्वात्तदनर्थकारि ॥ १२
577 ) पापधीप्रसरवारणं दृढं दुर्विदग्धजनं चित्तचोरणम् । उत्तरं किमपि रच्यते मया सूरिदेवनिवहस्य विश्रुतम् ॥ १३ 578 ) संसारदोषनिचयप्रतिवीक्षणेन नश्यन्ति योगिनिवहस्य तदुत्थदोषाः । व्याघ्रावलोकन भयादिव भुक्तपीतं क्षक्षण एव पशुव्रजस्य ॥ १४
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579 ) जायन्ते यदि मन्मथाद्यवगुणस्तिष्ठन्ति ते नो चिरं सम्यग्ज्ञानतपःप्रभावविलसद्योगीन्द्रचेतोभुवि । उद्यच्चण्डरुचिं प्रतापविभिता घूराका यथा संतप्ते' नकुलः स्थितं च सरितां पूरे " यथा मूत्रितम् " ॥ १५
जैनशास्त्र को न जाननेवाले कितने ही जन ऐसा कहते हैं कि औषधि आदिका देना फलदायक नहीं है । क्योंकि वह कामादि दोषों का हेतु है । तथा चूँकि वह आरम्भ से उत्पन्न होता है इसलिये अर्थकारक भी है ॥ १२ ॥
ग्रन्थकार कहते हैं कि मैं इस आशंका का ऐसा कुछ सुदृढ उत्तर रचता हूँ जो पापबुद्धि के फैलाव को रोकनेवाला, दुर्बुद्धि जनों के अन्तःकरण को चुरानेवाला व आचार्यपरम्परा में प्रसिद्ध होगा ॥ १३ ॥
जिस प्रकार व्याघ्र के देखने के भय से पशुसमूह का खाया पीया सब क्षणभर में ही के नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार संसारसंबन्धी दोषसमूह के निरन्तर देखने से साधुसमूह औषधि आदि से उत्पन्न वे कामादि सब दोष शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । ( अतएव उक्त दोषों की आशंका से औषधि आदि के दान को निरर्थक बतलाना युक्तिसंगत नहीं है ) ॥ १४ ॥
जिस प्रकार उदित हुए प्रचण्ड सूर्य के प्रताप से भयभीत बेचारे उल्लू दीर्घकाल तक नहीं रहते हैं, सन्तप्त स्थान में नेवला दीर्घकालतक अवस्थित नहीं रहता है, तथा नदियों के प्रवाह में मूत्रजल दीर्घकाल तक नहीं रहता है - शीघ्र ही बह जाता है - उसी प्रकार सम्य
१२) 1 समयरहिताः । १३ ) 1D निवारणं. 2 दुष्टज्ञानिनः । १४) 1 कामोत्था भेषजाहारादिर्वा दोषाः 2 D गच्छति 3D नाशं. 4 D पशुसमूहस्य । १५ ) 1 दोषा : 2 अवगुणाः दोषाः 3D पृथिव्याम्. 4 सूर्य. 5 भयभीता:. 6 P D उलूका:. 7 D सूर्येण 8 सर्पारि:. 9 स्थितं चिरं तिष्ठति न D निजस्थानं. 10 स्थल रेणुपुरमध्ये । 11 मूत्रितं चिरं न तिष्ठति ।