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- औषधदानफलम् -
572 ) परीषाणां सहनं मुनीनां यथा हि धर्मों गृहिणां तथैव । योग्योपयोगस्य विहायिताख्यं द्वयं द्वयेषां द्वयसौख्यकारी ॥ ८ (573) प्रतिदिवससमुद्यत्द्यथावारणार्थ
मशनमिव नियोज्यं भेषजं चापि तद्वत् । रुगुपशमनिमित्तं काम संग्रामधावद् विदितविजयभाजां संयतानां प्रपुष्टयै ॥ ९
574) यथा कतकसंयोगात्समलं निर्मलं जलम् । कार्यार्थभिः क्रियेतैवं योगिकायो ऽपि भेषजैः ॥ १०
575) रोगैर्हिमैरिव सरस्सु सरोरुहाणि ग्लायसुं तीर्थं गुरु हेतुषु संयतेषु । लायन्ति तीर्थचरणानि ततो ऽवनाय तेषां तु भेषजमनेकविधं प्रदेयम् ॥ ११
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जैसे परीषहों का सहना मुनियोंका धर्म है वैसे ही उन के लिये योग्य उपयोगी औषध आदि का देना यह गृहस्थों का भी धर्म है । इस प्रकार ये दोनों धर्म दोनों के लिये इह-परलोक में सुखदायक हैं ॥ ८ ॥
काम के साथ युद्ध करने के लिये दौड़ कर निश्चित ही विजय को प्राप्त करने वाले संयमी जनों के पोषणार्थ जिस प्रकार प्रतिदिन उत्पन्न होनेवाली उनकी भूख की पीडा के दूर करने के लिये आहार की योजना की जाती है, उसी प्रकार उनके रोग की बाधा दूर करने के लिये औषध की भी योजना करना योग्य है ॥ ९ ॥
जिस प्रकार कार्यों की अभिलाषा रखनेवाले मनुष्य मलिन जल को निर्मली फल के संयोग से निर्मल कर लिया करते हैं, उसी प्रकार मुनिजन के ( रुग्ण ) शरीर को औषध के संयोग से नीरोग कर देना भी योग्य है ॥ १० ॥
जिस प्रकार तुषार से तालाबों में कमल मुरझा जाते हैं उसी प्रकार तीर्थप्रवृत्ति के प्रबल हेतुभूत संयमी जनों में रोगों के कारण तीर्थाचरण - व्रताचरण - मुरझा जाते हैं - नष्टप्राय हो जाते हैं । इसीलिये उनके संरक्षण के लिये उन्हें अनेक प्रकारकी औषधि को देना चाहिये ॥ ११ ॥
८) 1 दानम्, D दानाख्यम्. 2 यतीनां गृहस्थानाम्. 3 इहलोकपरलोक । ९ ) 1 भूख. 2 आहारम् । ११) 1 D प्रालेयै: 2 PD सरोवरेषु. 3 PD कमलानि 4 ग्लानेषु, D म्लानेषु सत्सु. 5 धर्मव्रतनियमसंयमश्रुतज्ञानपठनपाठन व्याख्यान सम्यग्दर्शनवृद्धिकारणादि आचरणानि, D धर्मव्रतनियमसंयमानि आचरणानि 6 ततस्तेषामाचरणानां रक्षणार्थ तेषां तु यतीनां भेषजं नानाप्रकारं देयम्. 7 रक्षणस्य ।