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________________ १४० - धर्मरत्नाकर: [८. ४568) त्यक्ते तत्र निरन्तरं परिहतं तीर्थेशिनी शासनं संसारोदधिलङ्घनोत्सुकजगत्पोतायमानं सदा । तस्मात् षोडशकारणेषु पठितं चाभ्यन्तरं तत्तपो ग्लानाभ्युद्धरणं च कीर्तिकरणं धर्मप्रियैरय॑ताम् ॥ ४ 569) औदारिकेनापनेने नूनं शक्यो विधातुं सकलो ऽपि धर्मः । तत्सर्वरोगैकसखं सदैव नैवान्यथा तत्पतिपाल्यमस्ति ॥५ 570) रुजासु यावत्क्षमते तदौषधैः परैश्च पथ्यैर्नितरां प्रपाल्यते । उपेक्ष्यते जातुं न तावदाश्रमैः शरीरमायं खलु धर्मसाधनम् ॥ ६ 571) रुजां सहेतापि निजोचितां वपुर्न वज्रकायैकसहां तदीरितम् । पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः ॥ ७ इस प्रकार उस महाधर्म स्वरूप वैयावृत्त्य के निरन्तर छोड देने पर उसने जो तीर्थकरों का शासन - उपदिष्ट वस्तुस्वरूप - संसाररूप समुद्र के लांघने में - उसके पार होने मेंउत्सुक विश्व के लिये सदा नाव के समान है उसे भी छोड दिया, ऐसा समझना चाहिये । यही कारण है जो उक्त वैयावृत्त्य को तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध की कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के मध्य में पढ़ा गया है - निर्दिष्ट किया गया है । अभ्यन्तर तप के अन्तर्गत वह वैयावृत्त्य रोगी साधुओंका उद्धार करने वाला एवं कोर्ति के प्रसार का कारण है। इसलिये धर्मानुरागी जनों को उसका उपार्जन करना चाहिये ॥ ४ ॥ . औदारिक शरीर से निश्चयतः संपूर्ण धर्म का पालन करना शक्य है । वह शरीर सदा सर्व रोगोंका अनुपम मित्र है । यही कारण है जो उसके संरक्षण की आवश्यकता होती है । अन्यथा उसके रक्षण की आवश्यकता ही नहीं थी॥५॥ जबतक वह शरीर रोगसे मुक्त होने के योग्य है तबतक औषध और पथ्य से उसका पालन जरूर करना चाहिये । किसी भी आश्रम में रहनेवाले उसकी उपेक्षा नहीं करते । क्योंकि शरीर धर्म का प्रमुख साधन है ॥ ६ ॥ - शरीर अपने योग्य रोग को ही सह सकता है, वह वज्रसमान दृढ शरीर के द्वारा सह सकने योग्य रोग को ठीक नहीं कहा है । ठीक है - कोमल शिरीष कुसुम भ्रमर के चरण को ही सह सकता है, परन्तु वह पक्षी के पद के भारको नहीं सह सकता है ।। ७ ॥ ४) PD 1 वैयावृत्त्ये. 2 तीर्थकराणाम्. 3 वैयावृत्त्यम्. 4 उपार्जनीयम् । ५) 1 PD शरीरेण. 2 कर्तुम. 3 औदरिक शरीरम्. 4 औषधदानेन विना. 5 औदरिकशरीरस्य । ६) 1 D अतिशयेन. 2 कदाचित. 3 श्रावकैः, D भव्यः. 4 औदरिक शरीरम्. ७) 1 D वज्रकायैकसहां रुजां प्रति तच्छरीरं न ईरितम्. 2 सूक्ष्म, कोमलम्. 3 पक्षिण:.
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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