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[८. अष्टमो ऽवसरः]
[ औषधदानफलम् ] 565) ओषधांहतिरितो निवर्ण्यते तस्य वत्सलजनाग्रवतिनः।
ईक्षते ऽक्षयसुखं य एव ना नीरुजास्पदनिबन्धनं धनम् ॥ १ 566) जीवितार्थमभयस्य तद्यथा दानमिष्टमशनावबोधयोः ।
भेषजस्य च तदर्थमीरितं तद्विना ननु दया विदूयते ॥ २ 567) यस्माद्वयाधिग्लपितवपुष धर्म्यहयं हि संघ
रत्नं यद्वद्विगलितधिया चूर्ण्यमानं कुतश्चित् । आसक्तश्चेन्मदवशतयोपेक्षते ऽ धर्मकल्पो
ऽवैयावृत्त्याद्वयमपि महद्धर्म मत्युत्ससर्ज ॥३
अब यहाँ से वत्सल जन के मध्य में प्रमुखता को प्राप्त पुरुष के लिये औषध दान का वर्णन किया जाता है । जो पुरुष इस दान को देता है वह अक्षय सुख को देखता है। यह औषधदान नीरोगता का कारणभूत धन है ॥१॥
जिस प्रकार जीवित-प्राणधारण के लिये अभय, आहार और ज्ञानका दान अभीष्ट है, उसी प्रकार उस जीवित के लिये औषध का भी वह दान कहा गया है। क्योंकि, उसके विना निश्चय से दया अधूरी रहती है ॥ २ ॥
____ कारण यह कि जो विषयासक्त हो कर अभिमान के वशीभूत होता हुआ यदि किसी नष्टबुद्धि - मूर्ख के द्वारा किसी कारण से चूर्ण किये जानेवाले रत्न के समान रोग से ग्रस्त शरीरवाले ऐसे धर्म के निवासस्थानभूत संघ की उपेक्षा करता है तो वह अधर्मकल्प - पापिष्ठ के समान – मनुष्य वैयावृत्त्य न करनेसे महान् धर्म को (और संघ को) भी नष्ट करता है ॥ ३ ॥
.१) 1 औषधांहतिरभयदानम्. " विश्राणनं वितरणं स्पर्शनं प्रतिपादनम् । प्रदेशनं निर्वपनमुपसर्जन मंहतिरित्यमरः." 2 D ज्ञानदानानन्तरम्. 3 D°ईक्ष्यतिक्षयसखम्°, D विनाशमित्रम्. 4 गृहस्थः, D पुरुषः । २) 1 अभ पदान. 2 हीना भवति, विनश्यते । ३) 10 कारणात्. 2 PD महाधर्म. 3D विनाशितः।