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- धर्म रत्नाकरः -
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562) ते धन्या धनिनस्त एव भुवने ते कीर्तिपात्रं परं तेषां जन्म कृतार्थमर्थनिवहं ते चावहन्त्येन्वहम् । ते जीवन्तु चिरं नराः सुचरिता जैनं शुभं शासनं ये मज्जद्गुरुदुः खमाम्बुधिपयस्यभ्युद्धरन्ति स्थिराः ॥ ८४ 563 ) किं किं तैर्न कृतं न किं प्रवहितं पापं प्रदत्तं न किं के Sपायी न निवारितास्तनुमती मोहार्णवे मज्जताम् । नो पुण्यं किमुपार्जितं किमु यस्तारं न विस्फारितं सत्कल्याणकलापकारणमिदं यैः शासनं लेखिर्तम् ॥ ८५ 564 ) निक्षिप्ता वसतौ सतां क्षितिपतेः संपत्प्रमोदास्पदं भाण्डागारितमा मेरं स्थिरतरं श्रेष्ठं गरिष्ठं पदम् । सत्यं कारितमक्षयं शिवसुखं दुःखाय दत्तं जलं धन्यैस्तैः स्वधनैरलेखिं निखिलं यैर्वाङमयं निर्मलम् ॥ ८६ इति सप्तमोऽवसरः ॥ ७ ॥ इति अवसरद्वयेन ज्ञानदानवृष्टिः ॥
[ ७. ८४
जो स्थिर विद्वान् महान् दुःखमाकालरूप समुद्र के जल में डूबते हुए जिनेश्वर के उत्तम शासन का उद्धार करते हैं वे धन्य हैं, वे ही धनिक हैं, वे ही उत्कृष्ट कीर्ति के पात्र हैं, उनका जन्म कृतार्थ है तथा उन को प्रतिदिन धन समूह की प्राप्ति होती है । उत्तम आचार 'पुरुष दीर्घ काल तक जीवित रहें ॥ ८४ ॥
धारक
जिन्होंने उत्तम कल्याण समूह के कारणभूत इस आगम को लिखवाया है, उन्होंने कौन कौन से शुभ कार्य नहीं किये हैं, कौन कौन से पाप नष्ट नहीं किये हैं, कौनसा दान नहीं दिया है, मोहरूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के कौनसे संकटों को दूर नहीं किया है, कौन सा go प्राप्त नहीं किया है, तथा किस निर्मल यश को लोक में नहीं फैलाया है ? ( अर्थात् उन्होंने सब ही उत्तम कार्यों को कर लिया है तथा चिर संचित पाप कर्म को भी नष्ट कर डाला है । इस उनका निर्मल यश भी लोक में फैला है ) ॥ ८५ ॥
जिन्होंने अपने धन के द्वारा समस्त निर्मल आगम को लिखवाया है उन भाग्यशाली . महापुरुषोंने हर्ष की कारणभूत राजा की संपत्ति को सज्जनों के घर में रख दिया है - अर्थात् उसके पढने से सत्पुरुषों को श्रेष्ठ राज्यलक्ष्मी प्राप्त हो सकती है । अतिशय स्थिर, श्रेष्ठ व गौरवशाली देवों संबन्धी पद को - इन्द्रादि की विभूति को - - भाण्डागार में अवस्थित कर लिया है । अविनश्वर मोक्षसुख को सत्यंकार - बयाना - देकर अपने अधीन कर लिया है । तथा दुःख को जलांजलि दे दी है - उसे सर्वदा के लिये नष्ट कर दिया है ॥ ८६ ॥
इस प्रकार सातवाँ अवसर पूरा हुआ || ७ || इस प्रकार इन दो ( ६-७ ) अवसरों के द्वारा ज्ञानदान के फलका व्याख्यान किया ।
८४) 1 D ' वहन्त्वेवह, रक्षन्तु. 2 प्रतिदिनम्, D अनवर्त [ अनवरतं ]. 3D दु:खमकाल | ८५ ) 1PD ° प्रहितम्, कि कि पापं प्रकर्षेण विशेषेण न हतम्, D विनाशितम्. 2 उपद्रवा विनाशा: 3 संसारिणां जीवानाम्, D जीवानां. 4 D मोहसमुद्र. 5D ब्रुडताम्. 6 निर्मलं उज्ज्वलं वा. 7 D लिखापितम् । ८६) 1 दैवं पदम्. 2D लिखितम् ।