________________
-७. ८३]
-ज्ञानदानफलम् - 558) व्याकरणालङ्कारच्छन्दःप्रमुखं जिनोदितं मुख्यम् ।
सुगतादिमतमपि स्यात्स्यादळे स्वमतमकलङ्कम् ॥ ८० 559) मुनिमतमपि विज्ञात न पातकं तनुविरक्तचित्तानाम् ।
यंत्सर्वं ज्ञातव्यं कर्तव्यं न त्वकर्तव्यम् ॥ ८१ 560) विज्ञाय किमपि हेयं किंचिदुपादेयमपरमपि दूष्यम् ।
तनिखिलं खलु लेख्यं ज्ञेयं सर्वज्ञमतविज्ञैः ॥ ८२ 561) ये लेखयन्ति सकलं सुधियो ऽनुयोगं
शब्दानुशासनमशेषमलङ्कृतीश्च । छन्दांसि शास्त्रमपरं च परोपकारसंपादनकनिपुणाः पुरुषोत्तमास्ते ॥ ८३
हो । तथा अगाध व अपार समुद्र को अपने दोनों बाहुओं से तरने की इच्छा करते हो । (तात्पर्य यह कि जिस प्रकार चन्द्र का चुम्बन - स्पर्शन - आदि सर्वथा असंभव है उसी प्रकार व्याकरण के अध्ययन के विना पदार्थों का व्याख्यान भी सर्वथा असम्भव हैं) ॥७९*१॥
व्याकरण, अलंकार व छन्दःशास्त्र आदि जिनेश्वरकथित शास्त्र मुख्य हैं तथा बौद्ध आदि अन्य मत भी जब स्यात् पद से अंकित अर्थात् स्याद्वाद से भूषित होते हैं तब वे भी स्वमत-जिनमत और निर्दोष होते हैं । (तात्पर्य - बौद्ध व नैयायिकादिकों के शास्त्रों में वस्तु का स्वरूप सर्वथा नित्यानित्यादि रूप से कहा गया है। यदि उसमें स्यात् पद को जोड दिया जावे तो वह भी अनेकान्तात्मक हो जाने से प्रमाणयुक्त होगा, तब उसे जैन मत कहने में कुछ हर्ज़ - हानि नहीं है ) ॥ ८० ॥
जिन सज्जनों का मन शरीर से विरक्त हो चुका है उनके लिये मुनि के मत का जानना भी पाप नहीं है । कारण यह कि जो भी कर्तव्य है उस सबको जान लेना योग्य है, किन्तु अकर्तव्य को जानना उचित नहीं है ।। ८१ ॥
जो विद्वान् सर्वज्ञ के मत से परिचित हैं उन्हें जो कुछ भी हेय है, जो कुछ उपादेय है और अन्य जो कुछ भी दूषण के योग्य है, उस सब ही ज्ञेय को जानकर लिखना चाहिये ॥८२॥
__ जो विद्वान् संपूर्ण अनुयोग को, संपूर्ण व्याकरण शास्त्र को, समस्त अलंकार शास्त्रको छन्दःशास्त्र को और अन्य भी शास्त्र को लिखवाते हैं, उन्हें परोपकार करने में अतिशय चतुर पुरुषोत्तम समझना चाहिये ॥८३॥
८१) 1 P D विज्ञानवम्. 2 यतः कारणात् । ८३) 1 D अलंकारान् ।