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- धर्मरत्नाकरः -
553 ) गणिते धर्मकथायां चरणे द्रव्ये भवेयुरनुयोगाः । व्याख्यातानां चतुर्णां तुर्यो' वर्यः समाख्यातः ।। ७६ 554) स्वामी समन्तभद्रः श्रीमानकलङ्कदेव इत्याद्याः । तर्केण प्रमाणैरपि शासनमभ्युद्धरन्ति स्म ॥ ७७ 555 ) मिथ्यादृष्टिश्रुतमपि सद्दृष्टिपरिग्रहात्समीचीनम् । ताम्र रसानुविद्धं क' किमु काञ्चनं न संभवति ॥ ७८ 556 ) दीप इव शब्दविद्यो परमात्मानं च दीपयत्युच्चैः । आत्मप्रकाश sft हिन तथा पुनरन्यशास्त्राणि ॥ ७९ 557 ) तदुक्तम् -
चन्द्रं चुचुम्बिषसि मूढ जिघृक्षसे । द्य प्रोर्णुनूषसिं करेण सचन्द्रताराम् ॥ दोर्भ्यां तितीर्षसि समुद्रमगाधपारं । यच्छन्दशास्त्रमनधीत्यं विवक्षसे ऽर्थान् ॥ ७९* १
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[ ७. ७६
गणित, धर्मकथा, चारित्र और द्रव्य इन चार को क्रमशः विषय करने वाले चार अनुयोग हैं। इन कहे हुए चार अनुयोगों में चौथा अनुयोग - द्रव्यानुयोग - श्रेष्ठ कहा गया है ।। ७६ ।।
स्वामी समन्तभद्र और श्रीमान् अकलंक देव आदि प्रमुख तार्किक आचार्यों ने तर्क से तथा अनुमानादि अन्य प्रमाणों से भी जिन शासन का उद्धार किया है ।। ७७ ।।
सो ठीक भी है, क्योंकि, मिथ्या दृष्टियों के द्वारा प्ररूपित श्रुत भी सम्यग्दृष्टियों के द्वारा स्वीकार करने पर समीचीन हो जाता है । पारद रससे संबद्ध तांबा क्या मूल्यवान सुवर्ण नहीं बन जाता है ? ॥ ७८ ॥
जिस प्रकार शब्दविद्या ( व्याकरण शास्त्र ) दीपक के समान आत्मा और परमात्मा को भी प्रकाशित करती है, उस प्रकार अन्य शास्त्र - - मिथ्यादृष्टि प्ररूपित श्रुत - केवल आत्मा को भी नहीं प्रकट करता है ।। ७९ ।। कहा भी है ।
शब्द शास्त्र के अध्ययन के बिना जो तुम पदार्थों का विवेचन करना चाहते हो, उससे हम ऐसा समझते हैं कि तुम चन्द्रका चुम्बन करना चाहते हो, सूर्य को ग्रहण करने की इच्छा करते हो, अपने हाथ से चन्द्र और ताराओं सहित आकाशको आच्छादित करने की इच्छा करते
७६ ) 1 लोकस्थितो. 2 द्रव्यानुयोग : 3P D प्रधानः । ७८ ) 1 ग्रहणात्. 2 मनोज्ञम् । ७९ ) 1 द्रव्यश्रुतम् २ अन्य मिथ्यादृष्टिजनितानि । ७९* २ ) 1 आकाशम् 2पणं इच्छसि आकाशम्, D व्योम हस्तेन मापस 3 भुजाभ्यां 4 तरितुं वाञ्छसि D तरितुमिच्छसि 5PD अपठित्वा 6 पदार्थान् व्याख्यायसि ।