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-ज्ञानदानफलम्548) संधार्याः सपरिच्छदाः श्रुतधराश्चित्रानपानादिना
लेख्यं पुस्तकजातमुत्तमधिया शस्तं च शस्तं मुदा । आत्मीयं हिमरश्मिमण्डलतले दत्त्वात्र नामामलं
नानाबन्धनवेष्टनादिविधिना संरक्षणीयं सदा ॥७१ 549) द्रविणं साधारणमुपकरणीयमथादरेण भरणीयम् ।
पुस्तकसंघादीनां निमित्तमापत्तिसंपत्तौ ॥ ७२ 550) कुर्वाणा निर्वहणं धर्मस्यानिधनमित्थमिह धनिनः।।
बध्नत्यनुबन्धि शुभं. निबन्धनं बन्धनविनाशे ॥ ७३ 551) तर्कव्याकरणाद्या विद्या न भवन्ति धर्मशास्त्राणि ।
निगदन्त्यविदितजिनमतमिति जडमतयो जनाः केऽपि ॥ ७४ 552) द्रव्यानुयोगः सकलानुयोगमध्ये प्रधानोऽभिदधै सुधीभिः ।
तर्कप्रमाणं प्रणिगद्यते ऽसौ सद्धर्मशास्त्रं ननु दृष्टिवादः॥७५
निर्मलबुद्धि श्रावक को सपरिवार श्रुतज्ञानियों का भोजन-पानादि के द्वारा संरक्षण करना चाहिये । एवं अपनी उत्तम बुद्धि से आनन्दपूर्वक उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शास्त्र समूह को लिखना चाहिये । तथा अपने निर्मल नाम को चन्द्रमण्डल के पृष्ठ पर दे कर अनेक बन्धन और वस्त्र वेष्टन आदि की विधि से उन शास्त्रों का सदा रक्षण करना चाहिये ॥७१॥
शास्त्र तथा मुनि व आर्यिका आदिरूप चार प्रकार के संघ आदि के ऊपर आपत्ति के आने पर उसके परिहार के लिये साधारण धन एवं उपकार के योग्य उपकरण आदि को पुष्ट करना चाहिये - उनका दान करना चाहिये ॥७२॥
इस प्रकार से यहाँ धर्म का अखण्ड निर्वाह करने वाले धनिक जन व्यवधान रहित उस पुण्य कर्म को बाँधते हैं, जो पापबन्धका नाश करने में समर्थ होता है ॥७३॥
कितने जडबुद्धि जन जिन भगवान् के अभिप्राय को न समझने के कारण यह कहते हैं कि तर्क, व्याकरण व ज्योतिष आदिक विद्यायें धर्मशास्त्र नहीं हैं ॥ ७४ ।।
परन्तु उनका वैसा कहना संगत नहीं है, क्योंकि, समस्त- चारों- अनुयोग में द्रव्यानुयोग मुख्य है, ऐसा विद्वानों के द्वारा कहा गया है । दृष्टिवाद स्वरूप वह द्रव्यानुयोग तर्क प्रमाण को समीचीन धर्मशास्त्र कहता है ॥७५ ॥
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७१) 1 परिवाराः, D मुनयः परिवारसहिताः संधार्याः. 2 D कथितम् - 3 हर्षेण । ७२) 1 D त्यागे समानवृत्ति मेघवत् दातव्यम् । ७३) 1D मोक्षकारणम् । ७४) 1 कथयन्ति । ७५) 1 कथितः, D धारयामि. 2 द्रव्यान योग:. 3 D° नतु दृष्टि°.4D पूनः कथं न धर्मवादः ।