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________________ -७. ६५] - ज्ञानदानफलम् - १४.१ 539 ) धर्म विशुद्धमधिगच्छति' शुद्धबोधो यः श्रद्दधात्यविधुरो विधिना विधत्ते । संबोधयत्यबुधभव्यजनं भवाब्धेरुत्तारकः सकरुणः स गुरुर्गुणाढ्यः ॥ ६३ 540 ) तथोक्तम् 6 प्राज्ञैः प्राप्तसमस्तशास्त्र हृदयः प्रव्यक्तलोकस्थिति : प्रास्ताशैः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ ६३*१ 8 541 ) देवागमगुरुतत्त्वं परीक्षितं पण्डितैरुपादेयम् । तापाद्यैरिव काञ्चनमिह वञ्चनभीतचेतोभिः ॥ ६४ 542 ) गुरुदेवयोः स्वरूपं निरूपितं प्रक्रमागतं किमपि । आगमतत्त्वं प्रकृतं समासतस्तत्समाम्नातम् ॥ ६५ जो निराकुल निर्मल ज्ञानी निर्दोष धर्म के स्वरूप को जानता है, उसके ऊपर श्रद्धान करता है, विधिपूर्वक उसका आचरण करता है, ज्ञानहीन भव्य जनों को उपदेश देता है, तथा जो दयार्द्र हो कर उनका संसार-समुद्र से उद्धार करता है, इत्यादि गुणों से युक्त महात्मा को गुरु कहा जाता है ।। ६३ ।। कहा भी है जो विद्वान् गणी - आचार्य - समस्त शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता, लोकव्यवहार से परिचित, निःस्पृह, प्रतिभा - नवीन नवीन तर्कणारूप बुद्धि - से सम्पन्न, शान्त, शंका के पूर्व ही उसके समाधान का अन्वेषक, प्राय: करके सब प्रकार के प्रश्नों को सहनेवाला - उनसे उद्विग्न न होनेवाला, प्रभावशाली, दूसरों के चित्त को आकर्षित करनेवाला, परनिन्दा से दूर, अनेक विभूषित तथा स्पष्ट व मधुर भाषण करनेवाला हो, वही धर्म कथा के कहने का अधिकारी - तत्त्व व्याख्याता - होता है ।। ६३*१ ।। जिस प्रकार मन में अयथार्थताकी आशंका करनेवाले ग्राहक यहाँ सुवर्ण की तपाने आदि उपायों द्वारा परीक्षा कर के उसे ग्रहण किया करते हैं, उसी प्रकार विद्वानों को देव, आगम और गुरु के स्वरूप की परीक्षा कर के ही उन को ग्रहण करना चाहिये ॥ ६४ ॥ प्रकरण के 'अनुसार उन में से गुरु और देवका कुछ स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है । इस प्रकरण में प्रकृत आगम का स्वरूप संक्षेप से कहा गया है ॥ ६५ ॥ ६३) 1 गृह्णाति 2 अहीन: 3 धारयति । ६३* १ ) 1 प्रज्ञा संयुक्त : 2 सर्वशास्त्रपारंगत: 3 ज्ञातलोकस्थिति:. 4 प्रकर्षेण निरस्ता आशा येनासौ प्रास्ताशः आशारहितः 5 बुद्धिमान्, D बुद्धिपर: 6 उपशमयुक्त:. 7 D प्रथमः उत्तरसमर्थ: 8 D आचार्य :. 9 Dवि [व्य] क्ताक्षर: । ६५ ) 1 पूर्वागतं पूर्वप्रारब्धम्. 2 पूर्वप्रारब्धम्. 3 आगमतत्त्वम्. 4 कथितम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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