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- धर्मरत्नाकरः -
[७.५८534) ये चेच्छन्त्यपि नेच्छन्ति सर्वज्ञं मानसे सदा।
तेषामपि स्फुरत्साक्षानिराकार्यः कथं भवेत् ॥ ५८ 535) इत्येवं मानतः सिद्धः सर्वज्ञो दोषवजितः ।
से भव्यानुग्रहायैर्वं प्रतिपादयति श्रुतम् ॥ ५९ 536) लिङ्गोगमानपेक्षं किंचिदिदानीमृतं वदेत् क्वचित् । ___एवं को ऽपि समस्तं साक्षात्कुर्वन्नहतकर्मा ॥ ६० 537) नैवागमो ऽस्त्यमूलः संबन्धाग्रहणतो न लिङ्गमपि ।
तथ्यमतीन्द्रियमर्थं साक्षाद्विदितं जिनो वदति ॥ ६१ 538) गिरी विदन् दोषगुणौ कियन्तौ परोपकाराहितसुप्रवृत्तिः ।
अन्यो ऽपि धर्मामृतधौतबुद्धिर्न वक्ति पूर्वापरसविरुद्धम् ॥ ६२ . .
निराकरण किया गया है । सर्वज्ञ भगवान् का निषेध करने के लिये दिया गया आश्रयासिद्ध नामक दोष अन्य आगम से समान है । यदि वह हृदय में प्रकाशित होता है, तो मीमांसक उसे नहीं कैसे कहेगा ? वह ज्ञानी संतान के बिना अर्हतसे अन्य लोगों को कैसे जानेगा (?) ॥५७॥
(सर्वज्ञ की जानने की) जिनकी इच्छा है और जिनकी नहीं उन दोनों के भी मन में प्रत्यक्ष रूपसे स्फुरित होनेवाले सर्वज्ञ का निषेध कैसे किया जा सकता है ? ॥ ५८ ॥
इस प्रकार प्रमाण से दोष रहित सर्वज्ञ सिद्ध होता है । वह भव्य जीवों का अनुग्रह करने के लिये ही श्रुत का प्रतिपादन करता है, अर्थात् भावश्रुत का प्ररूपण करता है ।। ५९ ।।
जैसे कोई पुरुष लिंग और आगम की अपेक्षा के विना कुछ सत्यार्थ का प्रतिपादन करता है, वैसे ही जिसने समस्त कर्मों को नष्ट कर दिया है ऐसा कोई महात्मा संपूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार करनेवाला है ॥६० ॥
अमूल आगम नहीं है । तथा बिना संबन्ध ग्रहण किये लिंगज्ञान भी नहीं है। श्री जिनेश्वर अतीन्द्रिय पदार्थों को प्रत्यक्ष से यथार्थ जानकर उनका व्याख्यान करते हैं ।। ६१॥
जो वचनों के कितने ही दोष और गुणों को जानता है, जिस की परोपकार में उत्तम प्रवृत्ति है, तथा जिसकी बुद्धि धर्मरूप अमृत के द्वारा धो दी गयी है -निर्मल कर दी गई है - ऐसा अन्य भी - सर्वज्ञ से भिन्न अल्पज्ञ भी -पूर्वापर विरुद्ध वचन नहीं कहता है ।। ६२ ॥
५९) 1 सर्वज्ञः. 2 उपकाराय प्रसादाय वा । ६०) 1 D चिह्न. 2 विना. 3 D शुभकर्मा । ६२) 1 वाणीनाम्. 2 D रोपित।