SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -७. ५७] -शानदानफलम् - 529) चिरतरकालालीनं कलधौतोपलमलमिव प्रयोगेण । झटिति विघटते जन्तोः कर्म ज्ञानादियोगेन ॥५३ 530) पापस्यापि विलोकयन्ति सुधियो लोकाः फलं दारुणं __ चौराणां वधबन्धनं बहुविधं वित्तापहारादिकम् । जिह्वाच्छेदनभेदनाद्यपयशो लोके मृषाभाषिणां नानाकारनिकारमङ्गविगमायन्याङ्गनासंगिनाम् ॥५४ 531) अर्हच्छीचूडामणिकेवलिकाज्योतिरमलशास्त्रादेः। संवादिनो जिनोक्तादतीन्द्रियो ऽप्यागमः सत्यः ॥ ५५ 532) एवंविधसिद्धान्तादपि भगवान् साध्यते हि सर्वज्ञः। विप्रतिपत्तौ झटिति प्रकटं कूटस्य दुर्दुरूढस्य॑ ॥५६ 533) अन्योन्याश्रयदूषणं न च भवेत्पूर्वोत्तरोत्सारितं सर्वज्ञस्य निषेधने ऽपि समतान्यनाश्रयासिद्धता। भात्यन्तःकरणे च तत्र वदतान्मीमांसकस्तत्कथं संतानेन विना बुधः स हि परान्विद्यात्कुतो ऽनर्हतः ।। ५७ जिस प्रकार दीर्घकाल से संश्लेष को प्राप्त हुआ सुवर्ण पाषाण का मैल प्रयोग से - अग्नि के तापसे - शीघ्र ही विलीन हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानादि के संबन्ध से प्राणी का दीर्घ काल से संबद्ध कर्म भी शीघ्र नष्ट हो जाता है ॥ ५३ ॥ विद्वान् लोग पाप के भयानक फल को देखते ही हैं । जैसे - लोक में चोरों को दुसरों के धन आदि के अपहरण से प्राप्त हुआ बहुत प्रकार का वध-बन्धन आदिका दुख, असत्यभाषियों को जिव्हा का छेदन-भेदन आदि एवं अपकीर्ति, परस्त्रीसेवियों को लिंगच्छेदनादिरूप अनेक प्रकारका अपकार ॥५४॥ श्रीजिनेश्वर ने कहे हुए सत्य ऐसे अर्हच्छीचूडामणि, केवलिकाज्योतिरमलशास्त्र आदि निर्दोष शास्त्रों से अतीन्द्रिय आगम भी सत्य है। तात्पर्य - उपर्युक्त शास्त्रों को प्रतीति सत्यरूपा होनेसे जिनेश्वर के मुखसे जो दिव्य ध्वनि निकली थी वह सत्य है ऐसा अनुमान से सिद्ध होता है ।। ५५ ॥ उपर्युक्त सिद्धान्त से भी भगवान् सर्वज्ञ की सिद्धि की जाती है। इससे भिन्न मत प्रकट करने पर (भिन्न मत-वाले का) असत्य दुर्नय झट से प्रकट हो जावेगा ॥५६॥ ... इस में अन्योन्याश्रय दोष का संभव भी नहीं है । क्योंकि इसका पहले ही उत्तर देकर ५३) 1 P°चिरकाला. 2 जीवस्य । ५४) 1 असत्यवादिनाम्. 2 धिक्कार. 3 अङगच्छेदनादि. ' परस्त्रीभोगिनाम् । ५६) 1 दुर्णयस्य । ५७) 1 D° निषेवने ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy