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- धर्मरत्नाकरः -
524) आरम्भे संरम्भात्परिग्रहे चाग्रहाद्विधा द्वन्द्वः । तनु चित्तसंगतानामसंगर्तस्त्यक्तसंगानाम् ॥ ४८ 525) रागादिदोष पूर्गापगमात्परमसुखसंगमः शमिनाम् । आगमगदितो ऽनुमानसिद्धो विशुद्धबुद्धीनाम् ॥ ४९ .526) अनुमीयते ऽत एव हि रागाभावः सदुपशमातिशये । संभावना दाह्याभाव व हुताशनातिशये ।। ५० 527) यो यस्येह विरोधी दृष्टस्तस्योदये तदितरस्य ।
नाशो sari वस्त्रे मालिन्यस्यैव शौक्ल्येन ॥ ५१
528 ) एवं सज्ज्ञानादेः प्रकर्षपर्यन्ततः क्षयो ऽत्यन्तम् । क्वचिदपि जीवे ऽविद्यातृष्णादेः संभवत्येव ॥ ५२
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शरीर और मन से संगत - शरीरादि बाह्यपदार्थों में अनुरक्त-जनों के आरम्भ विष- आसक्ति से दो प्रकारका द्वन्द्व रहा करता है । यक प्रयत्न और परिग्रह विषयक आग्रह किन्तु जो उस परिग्रह की ओरसे निर्ममत्व हो चुके हैं, उनके वह दो प्रकारका द्वन्द्व नहीं रहता है ॥ ४८ ॥ रागादिक दोषों के समूह के नष्ट हो जाने से निर्मल बुद्धि के धारक मुनिजनों को जो उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है उसका वर्णन आगम में किया गया है । तथा वह अनुमान से भी सिद्ध है ॥ ४९ ॥
इसीलिये जिस प्रकार अग्नि के ( उपशमकी) अधिकता में इन्धन के अभाव की संभावना की जाती हैं, उसी प्रकार विद्यमान उपशम की अधिकता में रागादि के अभाव का अनुमान किया जाता है ॥ ५० ॥
जो जिसका विरोधी होता है उसके वृद्धि में अन्य का विनाश देखा जाता है । जैसे शुक्लता से - सफेदी की वृद्धि में - मलिनता का विनाश ॥ ५१ ॥
इसी प्रकार से किसी जीव में जब सम्यग्ज्ञानादिक गुणों का प्रकर्ष बढते बढते पूर्णावस्था प्राप्त होता है, तब अविद्या ( अज्ञान ) व तृष्णा आदि का अतिशय विनाश उसके होता ही है ॥ ५२ ॥
४८) 1 कायमनःप्रधानानाम् 2 द्वन्द्व : अनिष्टः । ४९ ) 1 समूह. 2 विनाशात्. 3 पुनः कथंभूतास्ते । ५० ) 1 भाव्यतया ।