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१७.४०
- धर्मरत्नाकरः516) तत्रास्ति कर्म चित्र विचित्रफलसमुपलम्मतो ऽनुमितम् ।
___ जातं हेतोः सदृशान्न दृश्यते विसदृशं कार्यम् ॥ ४० 517) एकजनकादिजातौ स्त्रीपुंसौ यमलको प्रसाधयतः ।
भिदुरायुःसौभाग्यादिभागिनौ भेत्तृ तत्कर्म ॥ ४१ 518) समे ऽपि व्यापारे पुरुषयुगलस्यामलधियः
समाने कालादौ सकलगुणसाम्ये ऽपि भवति । यदेकस्यानों द्रविणनिचयो ऽन्यस्य सुखदो
विनिश्चेयं कर्म स्फुटतरमितो ऽस्तीत्यनुमितम् ।। ४२ 519) दारिद्रयं विदुषां विपन्नयवतां संपत्परा द्वेषिणां
वैधव्यं च वधूजनस्य वयसि प्रोल्लासिपीनस्तने । यत्प्रेयोविरहः स्थितिः सह खलोगो ऽप्ययादारुणं मुक्त्वा कर्म विचेतनं विकरुणं कश्चेतनश्चेष्टते ।। ४३
लोक में चूंकि कर्म का सुख दुःखादि रूप अनेक प्रकारका फल (कार्य) देखा जाता है, अतः इससे उसकी विविध रूपता का अनुमान होता है। कारण यह कि किसी एक सदृश कारण से उत्पन्न विलक्षण कार्य नहीं देखा जाता है, किन्तु कारण के अनुरूप ही कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है ॥ ४०॥
एक माता-पिता से उत्पन्न युगल स्त्री-पुरुष आयु, सौभाग्य एवं सुख दुःखादि की भिन्नताका अनुभव करते हुए अपने कर्म की भिन्नता को सिद्ध करते हैं ।। ४१ ।।...
किन्हीं निर्मलबुद्धि (विचारशील) दो पुरुषों की क्रिया, काल आदि और अन्य सब गुणों की समानता के होने पर भी उन दोनों में से एक को हानि और दूसरे को सुखप्रद धनसमूह का लाभ होता है। इससे कर्म के अस्तित्वका अनुमान होता है। इसीलिये यह स्पष्टतया समझ लेना चाहिये कि जीव जो भला बुरा आचरण करता है, तदनुसार उसके पुण्य-पापका उपार्जन होता है, जिससे उसे भविष्य में सुख-दुःख को भोगना पडता है ।। ४२ ।। - विद्वानों को दारिद्रय, न्यायमार्ग से चलनेवाले सत्पुरुष को विपत्ति, शत्रुओं को उत्तम संपत्ति, सुंदर और पुष्ट स्तनों के कारणभूत तारुण्य में स्त्रीजनों को वैधव्य की प्राप्ति, प्रिय मित्रादिकों का विरह, तथा दुष्टों के साथ संयोग; इस प्रकार से प्राणियों को जो अनुकूल व प्रतिकूल सामग्री प्राप्त होती है उसका कारण वह दुष्ट जड कर्म ही है । उस कर्म के विना भला कौनसा प्राणी प्रवृत्ति करता है ? उसके विरुद्ध कोई कुछ भी नहीं कर सकता है ।। ४३ ॥ ......
४०) 1 कृत्याकृत्ये पुण्यपापादौ, D कृत्याकृत्ये । ४२) 1 प्रमाणीकृतम् । ४३) 1 पण्डितानाम्. 2D आपदा. 3 रण्डत्वम्. 4 उन्नत. 5 बभूव ।