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- ज्ञानदानफलम् - 511) यत्रापि नानुमान क्रमते ननु मादृशस्य मन्दमतेः ।
बहुधा दृष्टावञ्चनजिनवचनात्तदपि निश्चेयम् ॥ ३५ 512) लोको ऽपि सत्यवाद संवादाद्वादिन विनिश्चित्य ।
संदिग्धे ऽर्थे साक्षिणमङ्गीकुरुते प्रमाणतया ॥३६ 513) न च भगवतो ऽस्तु किंचन वञ्चनवचने निमित्तमित्युक्तम् ।
प्रत्यक्षेणागम्यं तत्त्वागमनेन निःशेषम् ॥ ३७ 514) आप्तपरंपरया स्याद्ग्रन्थेनान्येन वचनसाम्येन ।
संदिग्धार्थे वचने क्वचन जिनोक्तत्वनिश्चयनम् ॥ ३८ 515) धर्मास्तिकायमुख्यं कथंचिदप्यस्तु किं तेनं ।
कृत्याकृत्यं चिन्त्यं सुचेतसा पुण्यपापादि ॥३९
जिस सूक्ष्म तत्त्व के विषय में मुझ जैसे मन्दज्ञानी का अनुमान प्रवृत्त नहीं होता है, -उसका निश्चय जिनवचनसे करना चाहिये । क्योंकि वह यथार्थ वस्तुस्वरूप का दिखलानेवाला व वंचनासे रहित है ॥ ३५ ॥
व्यवहारी जन भी सत्यवचन से सत्यवक्ता वादी का निश्चय करके संदिग्ध पदार्थ का निर्णय करने के लिये साक्षी को प्रमाण मानता है ॥३६ ॥
भगवान् जिनेन्द्रके वंचनापूर्ण भाषण का कोई निमित्त नहीं रहा है - वंचनापूर्ण भाषणका निमित्त जो कषाय भाव है वह उनका नष्ट हो चुका है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। इसीलिये उसे प्रमाणभूत मानकर जो समस्त वस्तुस्वरूप प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं जाना जा सकता है उसका आगम से- उक्त जिनवचन से - निश्चय करना चाहिये ।। ३७ ॥
संदिग्धार्थ विषयक वचन में जिनोक्त तत्त्व का निश्चय कहीं आप्त परम्परासे, कहीं अन्य ग्रन्थसे तथा कहीं वचन की समानतासे होता है ॥ ३८ ॥
धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय सूक्ष्म पदार्थ कैसे भी रहें, उनसे क्या सिद्ध होना है ? आत्महितैषी भव्य जीव को निर्मल अन्तःकरण से आचरणोय पुण्य कार्य का तथा परित्यजनीय पापकार्य का विचार करना चाहिये । अभिप्राय यह है कि तत्त्व को सूक्ष्मता और बुद्धि की मन्दता के कारण यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता है तो न सही। क्योंकि, उससे अभीष्ट की सिद्धि में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है। परन्तु आत्म हित के साधनार्थ हेय व उपादेय का विचार करना ही चाहिये। क्योंकि, उसके विना अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है॥३९॥
___३५) 1 D तयापि । ३७) 1 D प्रत्यक्षेण अग्राह्यं वञ्चननिमित्तमागतम्. 2 P तच्चागमनेन । ३९) 1 D जीवादिद्रव्यं. 2 D एकान्तेन ।