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[७. ३०
-धर्मरत्नाकरः506) ब्रह्महत्यादिदोषो हि नास्ति घातायभावतः ।
बालाद्या न युवाद्याः स्युनित्यस्याविचलत्वतः ॥ ३० 507) इत्येकान्तोपगमे' समस्तमसमंजसं समासजति ।
तस्मादुपगन्तव्यः प्रमाणवान् वस्तुपरिणामः ॥ ३१ 508) प्रतिसमयं प्राचीनं रूपं मुञ्चसदुत्तरं चाञ्चत् ।
वस्तु ध्रुवं कथंचन काञ्चनवदितादिपरिणामि (?)॥ ३२ 509) यस्योभावे सर्वे व्यवहाराः संभवन्ति न जनस्य ।
जीयात्स जीवितसमो ऽनेकान्तः संततं कान्तः ॥ ३३ 510) बाधाविकलं सकलं धर्मादिकमप्यतीन्द्रियं वस्तु ।
युक्तं युक्तिविविक्तैरनुमीयत एव जीवादिः ।। ३४
आत्मा के सर्वथा नित्य माननेपर चूंकि उसका अस्त्र-शस्त्रादि के द्वारा घात संभव नहीं है, अतएव ब्राह्मणहत्या आदि का दोष भी कभी किसीको नहीं लग सकता है। इस के अतिरिक्त नित्य में कुछ परिवर्तन संभव न होने से जीव की बालक और युवा आदि अवस्थायें-जो कि प्रत्यक्ष में भी दृष्टिगोचर होती हैं-नहीं घटित हो सकेंगी ॥ ३० ॥
इस प्रकार वस्तु के सर्वथा नित्य मानने से सर्व ही वस्तुस्वरूप असमंजस हो जाता है - तत्त्वव्यवस्था और लोक व्यवहारका प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिये प्रमाणसिद्ध वस्तु के परिणाम को मानना चाहिये ।। ३१ ॥
___ यद्यपि वस्तु प्रत्येक समय में अपने प्राचीन स्वरूप को - पूर्व पर्याय को - छोडती है और उत्तर स्वरूप को - नवीन पर्याय को-धारण करती है, तो भी वह कथंचन - द्रव्य स्वरूप से - ध्रुव (नित्य) है। जैसे सुवर्ण अपनी घट पर्याय को छोडकर किरीट पर्याय को धारण करता हैं, तो भी वह अपने सुवर्णपन को नहीं छोडता है -- वह दोनों ही अवस्थाओं में अवस्थित रहता है ॥ ३२ ॥
_ जिस अनेकान्तके अभाव में लोगों के सर्व व्यवहार असंभव हो जाते हैं वह जीवित के समान सुन्दर (प्रिय) अनेकान्त निरन्तर जयवन्त रहे ॥ ३३ ॥
धर्म व अधर्म द्रव्य आदि समस्त बाधा से रहित - अतीन्द्रिय वस्तुओंका तथा जीवादि पदार्थों का पवित्र विविध युक्तियों के द्वारा योग्य अनुमान ही किया जाता है ॥ ३४ ॥
. ३१) 1 अङगीकारे, D अङगीकारे सति समस्तम् अमनोज्ञं भवति. 2 PD अङगीकर्तव्यः. 3 पर्यायः । ३२) 1 प्राप्नुवत्. 2 P D अनेकान्तेन । ३३) 1 अनेकान्तस्य. 2 मनोज्ञः । ३४) 1 P° अनुमानत एव. ।