________________
-७, २९]
- ज्ञनिदानफलम् -
502 ) विनाशे प्राणिनां सद्यो ऽहिंसार्थस्त्वपकारिणोः । बन्धमोक्षौ कयोः स्यातामन्ययोश्चेदहेतुकौ ॥। २६. 503 ) अस्तीह प्रचुरं वाच्यमनुद्ये मिति नोच्यते ।
सुखावबोधं प्रायेण प्राणिभ्यो रोचते वचः ।। २७ 504 ) प्रत्यक्षादिप्रेतिक्षिप्तो नित्यपक्षो ऽप्यसंगतः । अपरापरपर्यायपर्युपास्यखिलं यतः ।। २८
505 ) किंचिद्धर्माद्यनुष्ठानं कूटनित्ये ' हि निष्फलम् । न धर्मादुपकारो ऽस्य नापकारो ऽस्त्यधर्मतः ।। २९
यदि प्राणी एक क्षण के अनन्तर नष्ट होते हैं, तो हिंसारूप कार्य किसका माना जावेगा ? क्योंकि जिसने मारा वह और जो मरा वह दोनों भी एक क्षण के अनन्तर स्वयं नष्ट होते हैं । अर्थात् हिंसक और हिंस्य दोनों भी वास्तविक हैं नहीं । अतएव वहाँ हिंसार्थ सिद्ध हो नहीं सकता । फिर अपकारी उपकारी ये नाम भी सार्थक नहीं हैं । बन्ध और मोक्ष किनको होंगे ? यदि अन्य किसीको भी ये अवस्था प्राप्त होती है तो ये निष्कारण होती होंगी । क्योंकि बन्धक और मुमुक्षु तत्काल नष्ट होने पर बन्ध और मोक्ष अवस्थायें निराधार हो जायेगी ॥ २६ ॥
इस विषय में कहने के लिये तो बहुत है, परन्तु अनुकूल प्रतीत न होने से अधिक कुछ कहा नहीं जा रहा है । कारण यह कि प्रायः प्राणियों को वह भाषण प्रिय लगता है जिससे उनको सुखपूर्वक बोध हो सकता है ॥ २७ ॥
नित्य पक्ष भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित होने के कारण अनित्य पक्ष के ही समान असंगत है । कारण यह कि समस्त वस्तुसमूह उत्तरोत्तर उत्पन्न होनेवाली अन्य अन्य पर्यायों से युक्त है । सो वह सर्वथा नित्य पक्ष में संभव नहीं है ॥ २८ ॥
सर्वथा नित्य पक्ष में किसी भी धर्मकर्म आदि का आचरण व्यर्थ ठहरता है । कारण यह कि आत्मा आदि को सर्वथा नित्य - अपरिणमन स्वभाव स्वीकार करने पर न तो धर्म से उसका कुछ उपकार हो सकता है और न अधर्म से अपकार भी । और यदि उसका धर्म से कुछ उपकार और अधर्म से अपकार स्वीकार किया जाता है तो फिर वैसी अवस्था में उसकी कूटस्थ नित्यता नहीं रह सकती है ॥ २९ ॥
-
२६) 1 वध्यवधकयोः, D हिस्यहिंसकयोः । २७ ) 1 गर्ह्यम्. 2 PD सुखाबोधं तु प्रायेण । २८) 1-D प्रत्यक्षादिः प्रतिक्षिप्तो. 2D अमिलितः 3D परंपरापर्यायैः सेवितम् । २९ ) 1D कूटवत् आत्मा शाक्यमतमेव कथयति ।