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४१.३२
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धर्म रत्नाकरः
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498) सर्व शून्यं च मन्वानो नात्मानमपि मन्यते । वाद्यादीनां क्रमो हन्त लभतामास्पदं क्व नु ॥ २३ 499 ) उक्तं च -
शून्यं तत्त्वमहं वादी साधयामि प्रमाणतः । इत्यास्थायां विरुध्येत सर्वशून्यत्ववादिता ॥ २३* १ 500) उत्पत्त्यनन्तरं नष्टे पदार्थे सर्वथा वृथा I तपोनियमदानाद्या बन्धमोक्षौ च दुर्घटौ ॥ २४
(501) क्षणेन दातरि क्षीणे भोक्ता दानफलस्य कः । शून्यं चेदं कृतध्वंसः स्यादेवं चाकृतागमः ॥ २५
[ ७.२३
जो माध्यमिक बौद्ध विशेष विश्व को शून्य मानता है वह आत्मा को भी नहीं मानता ऐसी अवस्था में उसके मत में वादी - सर्व शून्यता को सिद्ध करने वाले और प्रतिवादी - शून्यतावादका खंडन करने वाले - आदिका क्रम कहाँ स्थान पायेगा ? ( अर्थात् शून्यैकान्तके स्वीकार करने पर जब किसीका भी अस्तित्व नहीं रहेगा तब उस शून्यवाद को कौन और किस के प्रति सिद्ध करेगा यह सब विचारणीय है ) ॥ २३ ॥
कहा भी है
मैं
'शून्य तत्त्व को प्रमाण से सिद्ध करता हूँ ऐसी यदि शून्यवादी प्रतिज्ञा करता है, तो उसका वह सर्व शून्यवाद स्वयं विरोध को प्राप्त होगा । ( तात्पर्य यह कि एक ओर विश्व को सर्वथा शून्य मानना और दूसरी ओर उसकी सिद्धि के लिये हेतुपूर्वक अनुमानादि को उपस्थित करना यह परस्पर विरुद्ध है ।। २३* १
उत्पत्ति के अनन्तर क्षण में ही पदार्थ का विनाश मानने पर तप, नियम व दान आदि के व्यर्थ होने का प्रसंग अनिवार्य होगा । तथा वैसी अवस्था में बन्ध और मोक्ष भी सिद्ध नहीं होंगे। ( तात्पर्य यह कि आत्मा आदि को सर्वथा क्षणिक मानने पर कर्ता और भोक्ता में अभेद नहीं रह सकता है और तब वैसी अवस्था में तप नियमादि का आचरण व्यर्थं ठहरेगा तथा बन्ध व मोक्षकी व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी ) ॥ २४ ॥
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( इसका कारण यह है कि ) दानादिक करनेवाला तो उसी क्षण में नष्ट हो जानेवाला है, फिर भला उस के फल का भोगने वाला कौन होगा ? इस प्रकार दान की निरर्थ - कता सिद्ध होगी । और तब ऐसी अवस्था में कृतका नाश - दानादि के करने वाले को उसके फल की प्राप्ति- और अकृतका अभ्यागम- उस दानादिके न करने वाले को उसके फलको प्राप्ति- ये दोनों दोष अनिवार्य होंगे ॥ २५ ॥
२३) 1 D विवादम् । २५ ) 1D दानम् ।