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ज्ञानदानफलम् -
493 ) उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते पदार्थाः पर्ययात्मना । ध्रुवा द्रव्यात्मना सर्वै बहिरन्तश्च सर्वदा ॥ १८ 494) निःसंदेहविपर्यास पर्यायैः पर्युपासितम् ।
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बाल्यादिर्भािनिजं देहं पश्यन्त्येकमहर्निशम् ॥ १९ 495) अन्तरात्मानमप्येकं शोकानन्दादिभिर्युतम् ।
समस्तवस्तु विस्तारं शेषमित्थं त्रयात्मकम् ॥ २० ॥ युग्मम् । 496) कथं कान्तेमनेकान्तं दूषयत्येष सौगतः ।
संगतीत्संगतं ज्ञानं क्षणिके ऽनात्मके कुतः ॥ २१ 497) यथा प्रत्यक्षतः सिद्धं पर्यायमनुमन्यसे ।
द्रव्यं तथानुमन्यस्वं द्विना पर्यया न हि ।। २२
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मानते हैं, इस विपरीत प्रकार से दूर रहनेवाला, सूर्यप्रकाश के समान अज्ञानरूप अन्धकार को हटानेवाला, वृक्षसमूह को जैसे जमीन उसी प्रकार सब सिद्धान्तों को आधार देनेवाला और दुर्नय के विलास रूप पर्वत को वज्र के समान समूल नष्ट करनेवाला यह अनेकान्त सिद्धान्त है ॥ १७ ॥
पदार्थ पर्याय स्वरूप से उत्पन्न भी होते हैं और नष्ट भी होते हैं । परन्तु द्रव्य स्वरूप सेबा - पुद्गल व धर्माधर्मादि जड पदार्थ - और अभ्यन्तर - चेतन जीव - ये सब ही पदार्थ नित्य हैं, अर्थात् द्रव्य स्वरूप से वे सदा अवस्थित रहनेवाले हैं। उनका कभी भी उत्पाद और विनाश सम्भव नहीं है ॥ १८ ॥
जैसे - बाह्य पदार्थों में एक ही अपने शरीर को बाल्य व युवावस्था आदि पर्यायों से संयुक्त सन्देह व विपरीतता से रहित निर्मल ज्ञान के द्वारा निरन्तर देखा जाता है । तथा अभ्यन्तर एक ही आत्मा को शोक व आनन्द आदि पदार्थों से संयुक्त देखा जाता है । इसी प्रकार शेष सब ही पदार्थों को पर्यायस्वरूप से उत्पादव्ययात्मक और द्रव्यस्वरूप से ध्रुवात्मक - तीनों स्वरूप – जानना चाहिये ॥ १९-२० ॥
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यह बौद्ध सुन्दर अर्थात् युक्ति युक्त अनेकान्त को किस प्रकार से दूषित करता है ? अर्थात् उसका अनेकान्त को दूषित करके क्षणिक एकान्त का मानना संगत नहीं है । कारण कि वस्तु के संगत ( यथार्थ ) होने से ज्ञान भी संगत होता है । सो भला वह एकान्त स्वरूप से परिकल्पित क्षणिक और अनात्मक - स्वरूप से रहित - वस्तु में कैसे हो सकता है ? ॥ २१ ॥ हे बोद्ध ! तुम जैसे प्रत्यक्ष से सिद्ध पर्यायों को मानते हो वैसे ही द्रव्य को भी मानो, क्योंकि, उसके विना निराश्रय पर्यायों की संभावना नहीं है ॥ २२ ॥
१९) 1 PD पल्लट्टणं. 2 सेवितम् । २१ ) 1 मनोज्ञम्. 2 हृदयंगमात्, D संयोगात् । २२ ) जानीहि. 2 द्रव्यम् ।