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-धर्मरत्नाकर: - 489) सूक्ष्मान्तरितदूरार्थवस्तुविस्तारवेदकः।
उपदेष्टा जिनो युक्तस्ततः सर्वहितंकरः ॥ १४ 490) पूर्वापराविरुद्धं दष्टे संवाद्यबाधितमदृष्टे ।
क्वचिदप्यतीन्द्रिये ऽर्थे संवादादृष्टमाहात्म्यम् ॥ १५ 491) कान्तो जिनैरनेकान्तो व्याहतो व्याहतो न हि ।
जीवादिकः पदार्थों वा धर्मों वाप्यवधादिकः ॥१६ 492) जात्यन्धसिन्धुरविधेरतिदूरवर्ती
भानुप्रताप इव संतमसस्य जीवः । सर्वागमस्य धरणीव तरुव्रजस्य निःशेषदुनयविलासमही,वज्रम् ॥१७
नहीं हो सकता है । तब उन दोनों को छोडकर यदि किसी अन्य तीसरे को कारण माना जाता है तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वह तीसरा भी किसके निमित्त से होगा । यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि वह शक्ति के निमित्त से होगा, तो ऐसा कहना भी ठीक न होगा। क्योंकि, शक्तिमान् से उस शक्ति को सर्वथा भिन्न मानने वाले आप्त के यहाँ उस भिन्न शक्ति से कोई शक्तिमान नहीं हो सकता है कारण कि उन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि उन में समवायादि संबंध को स्वीकार किया जाता है तो सर्वथा भेद पक्ष में वह भी सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार आपका शास्त्र निराधार ही ठहरता है ॥ १३*२ ॥
इसलिये जो जिन भगवान् सूक्ष्म - स्व-भावान्तरित परमाणु आदि - कालान्तरित राम व रावण आदि और दूरवर्ती - देशान्तरित मेरु आदि - वस्तुओं के विस्तार को जानता हुआ सर्व प्राणियों का हित करने वाला है उसी को आगम का उपदेशक मानना योग्य है ॥ १४ ॥
जो पूर्वापर प्रकरणों में विरोध से रहित हो कर प्रत्यक्ष के विषयभूत पदार्थ के विषय में संवादक ( सत्यतायुक्त ) तथा परोक्ष पदार्थों के विषय में सब प्रकारको बाधा से रहित है, साथ ही किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप वर्णन में संवाद (यथार्थता) के कारण जिसका माहात्म्य देखा गया है, उसी को यथार्थ आगम समझना चाहिये ॥ १५॥
जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा मनोहर निर्बाध सिद्धान्त को अनेकान्त, जीव अजीव आदि को पदार्थ, तथा अवध- अहिंसा- आदिको धर्म कहा गया है ।। १६ ॥
जन्मान्ध लोग हाथी का सूंड, पूँछ आदि एक एक अवयव को छूकर उसी को हाथी
१४) 1 प्रच्छन्नावरितः । १५) 1 प्रत्यक्षे. 2 परोक्षे । १६) 1 P D मनोज्ञ:. 2 कथितः. 3 न निराकृतः, D निषेधितो न । १७) 1 अन्धकारस्य. 2 अनेकान्त:. 3 पर्वतः ।