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- शानदानफलम् - 486) नरोत्तम निराकृत्य नरपाशं पशुप्रियाः ।
धर्मोपदेशदातारं वदन्तो विप्रतारिताः ॥ १३ 487) उक्तं च--
कर्ता न तावदिह को ऽपि धियेच्छया वा दृष्टो ऽन्यथा कटकृतावपि तत्प्रसंगः । आइत्यं चेत्रिभुवनं पुरुषः करोति
कार्य किमत्र सदनादिषु तक्षकाद्यैः ॥ १३*१ 488) वक्ता नैव सदाशिवो 5 विकरणस्तस्मात्परों रागवान्
द्वैविध्यादपरं तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् । शक्त्या चेत्परकीयया कथमसौ तद्वानसंबन्धतः संबन्धो ऽपि न जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥ १३१२
कितने ही पशुओं को प्रिय माननेवाले - उनका यज्ञ में हवन करनेवाले-मनुष्यों में उत्तम सर्वज्ञ का निराकरण करके हीन पुरुष को धर्मोपदेशक कहते हुए स्वयं आत्मवंचनाकरते हैं ॥ १३ ॥
- कहा भी है - ... इस अनादिनिधन लोक या सृष्टिका कोई भी:- ब्रह्मा आदि - ज्ञान से अथवा इच्छा से कर्ता (निर्माता) नहीं देखा गया है। फिर भी यदि उसको कर्ता माना जाता है तो चटाई की रचना में भी उसी बुद्धिमान के द्वारा रचे जानेका प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होता है। फिर भी यदि आघात कर के - हठपूर्वक -पुरुष (ब्रह्मा) तीनों लोकों की रचना करता है, तो फिर इसी: प्रकार से गृह आदिका निर्माण भी उसीके द्वारा किया जा सकता है । और तब वैसी अवस्था में बढई आदि की कुछ भी आवश्यकता न रहेगी ॥ १३*१॥
उक्त वेदार्थका व्याख्याता यदि सदाशिव (सदामुक्त) को माना जाता है, तो वह भी उसका व्याख्याता नहीं हो सकता है । क्योंकि वह इन्द्रियों से रहित है और विना इन्द्रियों के उसका व्याख्यान संभव नहीं है । इसलिये यदि उससे भिन्न किसी इन्द्रिययुक्त पुरुष को उसका व्याख्याता माना जाता है तो यह सम्भव नहीं है। क्योंकि, जो इन्द्रिययुक्त शरीरधारी होगा वह राग आदि (अल्पज्ञता) दोषों से दूषित होने के कारण उसका प्रामाणिक व्याख्याता
१३) 1 सर्वज्ञम. 2 नरनिकृष्टम. 3 यज्ञकर्तारः. 4 वञ्चिताः। १३*2)-1बद्धया. 2 साक्षात 3 वाडहीप्रभृतिभिः । १३*२) 1 P D इन्द्रियरहितः. 2 करणसहितः. 3 D परया यया. 4 D.शिवशक्तिसंबन्धरहितः। .
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