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________________ -७.७] - ज्ञानदानफलम् -- १७ 478) वर्णाभिन्नो ध्वनिः किंचिच्छन्दोव्याकरणादिकम् । लौकिकेवि सं प्रायो वैदिकेष्वपि लक्ष्यते ॥ ५ 479) प्रत्यभिज्ञा त्वनित्ये ऽपि ध्वाक्षैः खलु न भक्ष्यते । दीपज्वालादिवङ्क्रान्तिरुभये समतिनी ॥ ६ 480) अपि च ध्वनिते नित्ये प्रागासीदिति किं प्रमा। तत्रार्थप्रतिपत्तिः किं सानित्ये तस्करैर्हता ॥ ७ व्यापार के अधीन हो कर ही उत्पन्न होता है तब उसे अन्यथा- उक्त ताल आदिकों की क्रियासे निरपेक्ष अपौरुषेय- कैसे कहा जाता है ? ( अभिप्राय यह है कि जो मीमांसक आदि आगम को अपौरुषेय मानते हैं, उनका वैसा मानना युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि, वह आगम शब्दात्मक होने से पुरुष के ताल आदिकी क्रिया के बिना नहीं हो सकता है ) ॥४॥ दूसरे, अकारादि वर्ण, विविध प्रकार की ध्वनि (शब्द) तथा कुछ छन्द और व्याकरण नियम आदि जैसे लौकिक वाक्यों में देखे जाते हैं, वैसे ही प्रायः वे वैदिक वाक्यों में भी देखे जाते हैं। (अतः लौकिक वाक्यों के समान वैदिक वाक्य भी पुरुषकृत ही होने चाहिये ॥ ५ ॥ आगम को नित्य व अपौरुषेय मानने वाले यदि यह कहें कि उसे अनित्य व पुरुषकृते मानने पर ये वे ही गकारादि वर्ण हैं ' ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। परन्तु वह होता अवश्य है। अतः वह आगम अनित्य नहीं हो सकता है । तो उसके उत्तर में यहाँ यह कहा गया है कि वह प्रत्यभिज्ञान तो अनित्य के विषय में भी हुआ करता है - जैसे यह वही दीपक की शिखा (लौ,) है, अथवा ये वे हो नखकेश हैं, इत्यादि । उस प्रत्यभिज्ञान को अनित्य के विषय में कुछ कौवे नहीं खा डालते हैं । वह तो नित्य व अनित्य दोनों के ही विषय में समान रूप से हुआ करता है। यह बात अलग है कि कहीं वह भ्रान्त होता है और कहीं यथार्थ होता है । प्रकृत में गकारादि के विषय में जो उक्त प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है उसे दीपज्वाला दिविषयक प्रत्यभिज्ञान के समान भ्रान्त समझना चाहिये ॥ ६ ॥ इसके अतिरिक्त शब्द को सर्वथा नित्य मानने पर हम पूछते हैं कि जिस प्रकार वह वर्तमान में है उसी प्रकार वह पूर्व में भी रहा है, इसमें क्या प्रमाण है। इस प्रकार यदि कहा जाय कि गृहीत संकेत के अनुसार जो शब्दों से नियत अर्थ का बोध होता है वह उसकी पूर्ण विद्यमानता के विना नहीं हो सकता है । यही उनके पूर्व अस्तित्व में प्रमाण है । सो यह कहना ५) 1 D यथा लौकिकेषु शब्देषु वर्णाभिन्नो ध्वनिस्तथा वैदिकेषु ... शब्देष्विति संबन्धः. 2 ध्वनिः. 3 वेदशास्त्रेषु । ६) 1 PD स्थायिज्ञानम्. 2 PD क्षणिकेऽपि. 3 न च कार्क: D हीनः. 4 Pरुभत्र.नित्यानित्ये. D नित्यानित्ये. वतिरनित्या तेजो नित्यं दोपे । ७) 1 शब्दसामान्ये, P°ध्वनित्वे'..2 प्रमाणम्, D आकाशध्वनौ अर्थप्रतिपत्तिः किं प्रमाणम. 3 अर्थप्रतिपत्तिः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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