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________________ [७. सप्तमो ऽवसरः] [ ज्ञानदानफलम् ] 474) वीतरागवचनं सदागमं वञ्चनादिरहितं मनीषिणः। आमनन्ति खलु रागपूर्वकांस्तत्र दोषनिवहान्मनोभवान् ॥१ 475) रक्तो हि रागिणं वक्ति वीतरागं परं नरम् । द्विष्टश्च शिष्टमा वष्टं निकृष्टो दुष्टचेतसम् ॥२ 476) इत्थं रागादिदोषेण पुरुषो भाषते मषा। यस्यासौं नास्ति नो भावी तस्य वाणी मृषा कथम् ॥ ३ 477) ताल्वादिहेतुव्यापारपारवश्येन जायते । अवश्यमागमः सर्वः स कथं कथ्यते ऽन्यथा ॥४ वीतराग भगवान का वचन उत्तम आगम है । क्योंकि उस में प्रतारणा आदि दोष नहीं है। विद्वान लोग मानते भी हैं कि वस्तुतः उस आगम में उत्पन्न होनेवाले मानसिक दोषसमह रागपूर्वक ही उत्पन्न होते हैं। (वीतराग भगवान में रागद्वेष न होने से आगम में दोष उत्पन्न नहीं होते ॥ १॥ __ रागी पुरुष दूसरे वीतराग पुरुषों को रागी कहता है । तथा द्वेष से संयुक्त निकृष्ट मनुष्य शिष्ट -- द्वेषरहित - पुरुष को दुष्ट अन्त:करणवाला कहा करता है ॥२॥' इस प्रकार पुरुष रागादिक दोषों से असत्य बोलता है । परन्तु जिसके वे रागादि दोष न वर्तमान में है और न भविष्य में भी संभव हैं उसकी वाणी असत्य कैसी हो सकती है ? ॥३॥ शब्द स्वरूप समस्त ही आगम जब नियम से तालु व ओंठ आदि कारणों के M १)1 कथयन्ति जानन्ति वा. 2 PD वीतरागवचने. 3D मनोद्धवान् । २) 1 वीतरागं प्रति. 2 PD कथयति । ३) 1 असत्यम्. 2 वीतरागस्य. 3 रागादिदोषः । ४) 1 आगम. 2 अकृत्रिम ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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