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________________ -६.५३] -ज्ञानदानफलम् - १३१ 472) ज्ञानस्य कश्चिदपरो महिमाद्भुतो ऽस्य दाताथिभिस्तदपरैः परिपूज्यते यत् । प्राप्नोति चार्थयशसी पदमत्युदार मत्रैव जन्मनि परत्र च मोक्षलक्ष्मीम् ॥ ५२ 473) पारे वाङमयसागरं गुरुधियो जाताः सृजन्ति स्वयं यच्छास्त्राणि सुमेधसः सुकृतिनो यच्चैकसंस्था नराः । जायन्ते भुवनत्रयस्य महतो यज्ज्ञेयपारं गतास्तदत्तस्य निरीहमानमनसा ज्ञानस्य लीलायितम् ॥ ५३ इति षष्ठो ऽवसरः ॥६॥ उल्लेख नहीं किया है। कारण कि उनके – सम्यग्दर्शन व चारित्र के - स्वरूपका समझनाही उनका दान है । इसलिये वह ज्ञानदान से भिन्न नहीं है ।। ५१ ।। ज्ञानका कोई आश्चर्यकारक अपूर्व ही माहात्म्य है । कारण कि उसका दाता ज्ञानार्थियों के साथ दूसरों से भी पूजा जाता है । उसे इसी जन्म में धन और कीर्ति के साथ महान पद की प्राप्ति होती है, तथा परलोक में मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ॥ ५२॥ कितने ही प्रकृष्ट बुद्धि के धारक जन जो शास्त्ररूप समुद्र के पार पहुँच कर स्वयं शास्त्रों की रचना करते हैं, कितने ही निर्मलबुद्धि पुण्यशाली मनुष्य जो एकसंस्थ -- गुरु से किसी पद, वाक्य या सन्दर्भ आदि को एक ही बार सुनकर आजन्म उसका स्मरण रखनेवालेहुआ करते हैं, तथा कितने ही जो महान् तीनों लोकों संबन्धी ज्ञेय के पारंगत-सर्वज्ञ- हो जाते हैं, यह सब निरीहमान मन से - निःस्वार्थ वृत्ति से - दिये गये उस ज्ञानकी ही लीला समझनी चाहिये ॥ ५३ ॥ इस प्रकार छठा अवसर समाप्त हुआ। ५३) 1 रचयन्ति यच्छन्ति वा. D शास्त्राणि निर्मापयन्ति. 2 D सुबुद्धयः 3 D एकसधिया इति । लोके ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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