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________________ १२४ - धर्मरत्नाकर: [६. ४७467) गुरूपकारः शक्येत नोपमातुमिहापरैः । उपकारैर्जगज्ज्येष्ठो जिनेन्द्रो ऽन्यनरैरिव ॥ ४७ 468) जन्मशतैरपि शक्यं नृभिरानृण्य गुरोर्न तु विधातुम् । तद्गुणदानाभावे ते च गुणास्तस्यं सन्त्येव ॥ ४८ . 469) ये शण्वन्ति वचो जिनस्य विधिना ये श्रावयन्त्यादता मन्यन्ते बहु ये पठन्ति सुधियो ये पाठयन्ते परान् । ये भूयो गुणयन्ति ये ऽपि गुणिनः संचिन्तयन्त्युद्यता स्ते कर्म क्षपयन्ति भूरिभवजं पङ्क पयोदा इव ॥ ४९ 470) बोधयन्त्यमलबोधशालिनो ये जनं जिनमतं महामतिम् । सत्त्वसार्थमखिले महीतले लीलयैव परिपालयन्ति ते ॥ ५० 471) दर्शनचारित्राद्यं ज्ञानान्तर्भावतः पृथगनुक्तम् । तद्पज्ञापनतो न परं दानं यतो ऽस्यास्ति ॥ ५१ जिस प्रकार लोक में सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र की अन्य साधारण मनुष्यों से तुलना नहीं की जा सकती है, उसी प्रकार गुरु के उपकारकी भी अन्यजनों के तुच्छ उपकारों के साथ तुलना नहीं की जा सकती है ॥ ४७ ॥ सेंकडों जन्मों से भी मनुष्यों को गुरु के ऋण से मुक्त होना असंभव है । क्योंकि गुरु ने दिये हुए गुण उस के ही पास रहते हैं । वे वापिस नहीं किये जा सकते हैं॥ ४८ ॥ जो निर्मलबुद्धि भव्य विधिपूर्वक जिनेश्वर के वचन (आगम) को सुनते हैं, जो आदरपूर्वक उसे दुसरों को सुनाते हैं जो उसका बहुत संमान करते हैं, जो उसे स्वयं पढते हैं, जो दूसरों को पढाते हैं, जो गुणीजन उसको आवृत्ति करते हैं तथा जो उसको चिन्तन - बार बार विचार व मनन - करते हैं, व अनेक जन्मों में संचित कर्म को इस प्रकार से नष्ट कर देते हैं, जिस प्रकार कि मेघ कीचड को नष्ट कर देते हैं ।। ४९ ।।। निर्मल ज्ञान से सुशोभित जो विद्वान्-अतिशय बुद्धिमान जन-जिनमतका ज्ञान कराते हैं, वे समस्त पृथिवीके सर्व प्राणियों की लीला से - अनायास -ही रक्षा करते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ ५० ॥ सम्यग्दर्शन व चारित्र आदिका ज्ञान में अन्तर्भाव होने से उन के दान का पृथक् N ४७) 1 उपमां दातुम् । ४८) 1 ऋणमोचनम्. 2 कर्तुम्. 3 तस्य गुरोः गुणानां सदृशा दानाभावे. 4 गुरोः । ४९) 1 D अन्येषां श्रावयन्ति. 2 D सादरा. 3 पुनः. 4 कर्दम. 5 D मेघाः । ५१) 1 अपरमपि ज्ञेयम्. 2 PD °पृथगुक्तम्, ज्ञेयम्. D भिन्नं न कथितम् यतो ज्ञानमध्ये. 3 ज्ञानरूपज्ञापनतः. 4 D दातुः सकाशातू. 5 गुरोः।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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