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- ज्ञानदानफलम् - 464) यथा पूर्व तथा पश्चाद्यथाग्रे पृष्ठतस्तथा।
निर्व्याजवृत्तिः पूज्यानां सुखीकुर्यान्मनः सदा ॥ ४४ 465) ज्ञानाचारपरायणस्य ददतः संगृह्णतश्च श्रुतं
का लक्ष्मी न तनोति' संप्रति तथा श्रीशासनस्योन्नतिम् । संवेगादिगुणान् परस्वहितकृत्कल्याणमालापकान्
तस्मात्तीर्थकराज्ञया वितरणं ज्ञानस्य कार्य बुधैः ॥ ४५ 466) नो माता सुतवत्सला न च पिता स्वामी प्रसन्नो न वा
न भ्राता ऽव्यभिचारिणो न सुहृदो नाश्वान हस्त्यादयः । यनिष्कारणनिष्कलङ्ककरुणाः सर्वोपकारोधता हेयादेयविपश्चितां तनुमतां श्रीसूरयः कुर्वते ॥ ४६
गुरु के साथ शिष्य की जैसी निष्कपट प्रवृत्ति पूर्व में रही है वैसी ही पश्चात्-अध्य. यन के पीछे-भी रहनी चाहिये, तथा जैसा व्यवहार प्रत्यक्ष में रहता है वैसा ही परोक्ष में रहना चाहिये । कारण कि पूज्य पुरुषों के समक्ष किया गया निष्कपट व्यवहार मन को सदा सुखी किया करता है ॥४४॥
जो ज्ञानाचार में तत्पर हो कर ज्ञान को दे रहा है तथा जो उसे ग्रहण कर रहा है उन दोनों के लिये यह दान कौन-सी लक्ष्मी को-किस अपूर्व सम्पत्ति को-तथा कोनसी सुन्दर शासन की उन्नति को--जैन धर्म की किस अपूर्व उन्नति को-नहीं विस्तृत करता है? अर्थात् इस दान के प्रभाव से आचार्य व शिष्य दोनोंको ही अपूर्व लक्ष्मी का लाभ होता है तथा उस से जैन धर्म की असाधारण उन्नति भी होती है। इस के अतिरिक्त वह अन्य के व अपने हित के करनेवाले तथा कल्याणपरम्परा के देने वाले संवेगादि गुणों को भी विस्तृत करता है। इसीलिये विद्वानों को जिनेन्द्र की आज्ञा से ज्ञान का दान करना चाहिये ।। ४५ ॥ ..
विना किसी स्वार्थ के ही निर्मल दया से संयुक्त हो कर सब के उपकार में उद्यत रहनेवाले श्रेष्ठ आचार्य हेय व उपादेय के विचार में चतुर ऐसे प्राणियों का जो हित किया करते हैं, उसे पुत्र से प्रेम करनेवाली न तो माता करती है, न पिता करता है, न प्रसन्नता को प्राप्त हुआ स्वामी करता है, न भाई करता है, न निर्दोष - सदा अनुकूल आचरण करनेवाले-मित्र करते हैं, न घोडे करते हैं और न हाथी भी करते हैं। तात्पर्य यह कि लोक में गुरु के समान प्राणी का हित करनेवाला दूसरा कोई भी नहीं है ॥४६ ।। AM
४४) 1 PD छद्मरहितवृत्तिः । ४५) 1 D विस्तारयति. 2 PD दानम्. 3 करणीयम्. 4 D पण्डितः कर्तव्यम् । ४६) 1 घोटकाः. 2 गजादय:. 3 पण्डितानाम् . 4 D आचार्याः ।