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________________ -६. ३०] - ज्ञानदानफलम् - 454) जायन्ते च यतीनां श्रुतानुभावेन लब्धयो विविधाः । फलमैहिकमामुत्रिकममलामरनरशिवसुखानि ॥ ३४ 455) धर्मार्थकाममोक्षाणां कीर्तेश्चैकं प्रकीर्तितम्'। ज्ञानं जलमिवावन्ध्यं धान्यानां संनिबन्धनम् ॥ ३५ 456) इदं विदित्वा श्रुतसंग्रहे गुरुर्गुरुक्रमाम्भोजरतैरनारतम् । समीहमानैरसमां समुन्नतिं समुद्यमः सद्विधिना विधीयताम् ॥ ३६ 457) गुरुजनमुखे भक्त्या न्यस्यन्मुहुर्मुहुरीक्षणे क्षणमपि कथां कुर्वन्नन्यां न चापरचिन्तनम् । उपचितरतिः सूत्रस्यार्थे शिरोरचिताञ्जलिः पुलकितवपुः पूज्य जल्पंस्तथेति समाहितः ॥ ३७ 458) उदानन्दाश्रुणी बिभ्रन्नेत्रपात्रे पवित्रितम् । स्वं कृतार्थं च मन्वानः पिबेत्तद्वचनामृतम् ॥ ३८ श्रुत के प्रभाव से मुनिजनों को इस लोक संबंधी फलस्वरूप अनेक प्रकार की लब्धियाँ -ऋद्धियाँ-प्राप्त होती हैं और परलोक में निर्मल देव व मनुष्यों का तथा अन्त में मुक्ति का भी सुख प्राप्त होता है ।। ३४ ॥ जैसे जल धान्य की उत्पत्ति का सफल-व्यर्थ न होनेवाला-कारण है, वैसे ही ज्ञान धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और कीर्ति की प्राप्ति का निर्बाध कारण कहा गया है ॥ ३५ ॥ यह जान कर के जो सज्जन अपनी असाधारण आत्मोन्नति की इच्छा करते हैं उन्हें सद्गुरुओं के चरणकमलों में अनुरक्त हो कर विधिपूर्वक उस श्रुत के ग्रहण में निरन्तर महान् प्रयत्न करना चाहिये ॥ ३६ ॥ जो गुरुजन के मुख पर भक्ति से बार बार अपने नेत्रों को रख कर एक क्षण भी अन्य कथा को व मन में अन्य चिन्तन को नहीं करता है, जो सूत्र के अर्थ में अतिशय प्रीति रखता है, जिसने अपने भालप्रदेश पर हाथ जोडकर रखे हैं अर्थात् जो विनयपूर्वक मस्तक झुका कर नमस्कार करता है, जिसका शरीर आनन्द से रोमांचित हो रहा है, तथा गुरुने जो कुछ भी कहा है उसे जो ' तथा-ठोक है, वैसा ही करूँगा यह ' कह कर स्वीकार करता हुआ समाधान को प्राप्त हुआ है; ऐसे सत्पुरुष को उत्पन्न हुए आनन्दाश्रुओं से परिपूर्ण नेत्ररूप पात्रों के साथ मन में पवित्रता को धारण कर के अपने को कृतार्थ मानते हुए गुरु के वचनामृत का पान करना चाहिये ॥ ३७-३८ ॥ ___३४) 1 ऋद्धयः । ३५) 1 D कथितम्. 2 यथा सफलम्, D सफलम् । ३६) 1 D क्रियताम् । ३७) 1 वधित. 2 वक्तरि गुरौ. 3 यथा गुरुणोक्तं तथैवेति वदन् श्रोता । ३८) 1 उत्पन्न. 2 P °स्वकृतार्थ ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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