________________
- ज्ञानदानफलम् -
444) संज्ञान लोचनमिदं भविनो' समानं भूतं भविष्यदखिलं खलु वर्तमानम् । सूक्ष्मं तिरोहितंमतीन्द्रियद्रवर्ति ज्ञेयं विलोकयति विष्टपंमध्यवर्ति ।। २४
—६. २७]
445) विनापि चक्षुषा रूपं ' निश्चिन्वन्ति विपश्चितः । चक्षुष्मन्तो ऽपि नाज्ञाना हेयोपादेयवेदिनः ।। २५
3
446) शास्त्रनेत्रविहीनो हि वाहदाहादिवर्जितः ।
2
पशोरपि नरः पापः कथं जीवन्न लज्जितः ॥ २६ 447) नरेण शास्त्रशून्येन किं शोच्येने विपश्चिताम् । तिरश्चो ऽपि जघन्येनं लब्धनाशितजन्मना ॥ २७
tes
ज्ञाननेत्र सर्व प्रकार से जगत् को जानता है । भव्य का यह सम्यग्ज्ञानरूप चक्षु अनुपम है । यह जगत् के मध्य में स्थित भूत, भविष्यत्, वर्तमानकालीन ज्ञेयों को - वस्तुओं को जानता है । तथा जो अतीन्द्रिय होने से दूर कहे जाते हैं ऐसे सूक्ष्म - परमाणु आदिक तिरोहित - देशान्तरित - मेवादिक, कालान्तरित - राम रावणादिक, अतीन्द्रिय पापपुण्य, धर्माधर्मादिक द्रव्य, इन सबको जानता है ॥ २४ ॥
विद्वान् लोग आँख के बिना भी वस्तु के रूप का निश्चय करते हैं - हेय को हेय और उपादेय को उपादेय जानते हैं । परन्तु अज्ञानी जन आँख के होने पर भी हेय और उपादेय वस्तु को नहीं जानते हैं ॥ २५ ॥
जो मनुष्य आगमरूप नेत्र से रहित है - जिसे हितकर आगम का परिज्ञान नहीं हैउसे निश्चयतः पशु से भी पापी समझना चाहिये । कारण कि पशु - बैल व गाय आदि तिर्येच प्राणी - तो बोझा ढोने व दूध दुहने आदि के उपयोग में आते हैं, परन्तु आगमज्ञान से होन मनुष्य किसी उपयोग में नहीं आता है । ऐसा मनुष्य जीवित रहते हुए भला लज्जा को क्यों नहीं प्राप्त होता है ? ॥ २६ ॥
शास्त्रज्ञान से शून्य मनुष्य विद्वानों के लिये शोचनीय हो कर पशु से भी हीन माना जाता है। ऐसे मनुष्य से भला स्वयं उसका व अन्य का भी क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? कुछ भी नहीं । वह मनुष्य जन्म को पाकर भी उसे यों ही नष्ट कर देता है ॥ २७ ॥
२४) 1 संसारिजीवस्य. 2 आच्छादितम्. D आवरणसहितम्. 3 Dइन्द्रिय- अगम्यम्. 4 D पदार्थम्. 5 D त्रिभुवन । २५) 1 D पदार्थ जानन्ति 2 ज्ञानवन्तः, D पण्डिताः. 3 चक्षुर्युक्ताः । २६ ) 1 D कृषिकरतावर्जितः । २७ ) 1D निन्द्येन. 2 ज्ञानवतां, Dपण्डितानां 3 तिरश्चः सकाशात्. D तिरश्चा. ° 4 हीनेन ।
1