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११० - धर्मरत्नाकरः
[६. २१441) दहति मदनवह्निानसं तावदेव
भ्रमयति तनुभाजां कुग्रहस्तावदेव । छलयति गुरुतृष्णाराक्षसी तावदेव
स्फुरति हृदि जिनोक्तो वाक्यमन्त्रो न यावत् ॥ २१ 442) त्रुट्यन्ति स्नेहपाशा झटिति विघटते दुनिवारा दुराशा
प्रौढो गाढाधिरूढो रहयति दृढतां कर्मबन्धप्रबन्धः । ध्वंसन्तो ध्वान्तपूरा इव दिवसपतेः पातकाभियोगा
योग्यानां ज्ञानयोगादुपरमति मतिर्गेइदेहादितो ऽपि ॥२२ 443) शास्त्राञ्जनेन जनितामलबुद्धिनेत्र -
स्तन्त्रोपकल्पितमिवाखिलजीवलोकम् । लोलं विलोकयति फल्गुंमफल्गुरूपं
नास्थामतो वितनुते तनुकाञ्चनादौ ॥ २३
जब तक श्री जिने श्वरका वचनरूप मंत्र अन्तःकरण में स्थान नहीं प्राप्त करता है तब तक ही कामाग्नि मन में दाह उत्पन्न कर सकती है, तब तक ही दुष्ट शनि आदि ग्रह अथवा पिशाच प्राणियों को भ्रान्ति उत्पन्न करा सकते हैं और तब तक ही तीव्र विषयतृष्णारूप राक्षसी धोखा दे सकती है ॥ २१॥
, ज्ञान के संबंध से योग्य जनोंकी स्नेहरूप फाँसें .- गृहकुटुम्बादिसे आसक्तियाँ - शीघ्र नष्ट हो जाती हैं । दुःखपूर्वक नष्ट होनेवाली दुराशा - विषयतृष्णा - शान्त हो जाती है । आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह रूपसे दृढतापूर्वक संबद्ध हुए प्रबल कर्मबंध का विस्तार उस दृढता को छोड देता है -- पाप प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग क्षीण हो जाता है। उससे पापजनक पदार्थों के संबन्ध इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार कि सूर्य के संबन्धसे अन्धकार के प्रवाह नष्ट हो जाते हैं । तथा उनकी बुद्धि घर व शरीर आदि से विश्राम ले लेती है - उनसे ममत्वबुद्धि छूट जाती है ॥ २२ ॥
जिसका बुद्धिरूप नेत्र शास्त्ररूप अंजन के संसर्ग के निर्मलता को प्राप्त हुआ है, वह भाग्यशाली मनुष्य समस्त जीवलोक को- चराचर विश्व को -- गारुड आदि विद्या से उपस्थित किये गये के समान चंचल देखता है। तथा श्रेष्ठ रूप को निरर्थक देखता है इसीलिये वह शरीर और सुवर्णादि में आस्था को नहीं करता है.- वह उन्हें अस्थिर मानता है ॥ २३ ॥
२१) 1 D कामाग्निः. 2 D° तावत्. । २२) 1 PD त्यजति. 2 तमःसमूहाः. D समूहाः D °ध्वान्तपूगा:° 3D उद्यमाः इव. 4 व्यावृत्ता भवति. D विरक्ता भवति । २३) 1D यथा तांत आकर्षपुत्तलिका इव. 2 पर्यायेण विनश्वरं. 3 निष्फलम् D विनश्वरं वा. 4 सफलम्. D द्रव्यार्थेन शाश्वतम्. 5 स्थितिम्. 6 करोति ।