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________________ - ६.२० ] - ज्ञानदानफलम् - 437) ज्ञानमेकमनेकेषामेककालमुपक्रियाम् ।। करोति याति नो हानि दत्तं वर्धेत कौतुकम् ॥१७ 438) अपास्यति कुवासनां भवशताजितामूर्जितां प्रमार्जयति दुर्जयं निबिडपापरूपं रजः। प्रकाशयति च स्फुटं किमपि वस्तुतत्त्वं परं करोति सकलं शुभं परिणता चिदेषा नृणाम् ॥ १८ .. 439) मुष्णाति विषयतृष्णां पुष्णाति च निर्वृति हरत्यरतिम् । अमृतमिव ज्ञानमिदं कोपाद्युपतापमपनुदति ॥ १९ । 440) विलसदतुलमोदं मानसं मानमुक्तं विपुलपुलकपूर्ण तूर्णमङ्गं विधत्ते । श्रुतिसुखमसमानं लोचने चाश्रुगर्भे श्रुतमपि जिनवाक्यं श्रेयसामेकहेतुः ॥ २० ज्ञान ही एक समान काल में अनेकों का- बहुत से श्रोता जनों का - उपकार किया करता है । तथा वह दिये जाने पर हानि को न प्राप्त हो कर वृद्धि को ही प्राप्त होता है, यही आश्चर्य की बात है। ज्ञान में धन की अपेक्षा यह विशेषता समझना चाहिये ॥ १७ ॥ .... यह ज्ञान सैंकडो भवों से चली आयी प्रबल कुवासना को दूर करता है, जो कष्ट से जीती जा सके ऐसी सघन पापरूप धूलि को झाड देता है तथा किसी अपूर्व ही वस्तुस्वरूप को स्पष्टतासे प्रकट करता है । इस प्रकार वह परिपक्व ज्ञान मनुष्यों के पूर्ण शुभ को करता है ॥ १८॥ __ अमृततुल्य वह ज्ञान विषयलोलुपता को नष्ट करता है, सुख को पुष्ट करता है, अरति को दूर करता है, तथा कोप, अभिमान आदि के संतापको नष्ट करता है ॥ १९॥ ... जिनवाणी का सुनना भी श्रोता के मन को मान से रहित करके उसे विलासयुक्त अनुपम आनन्द से परिपूर्ण, शरीर को शीघ्र ही विस्तृत रोमांच से व्याप्त, कानों को अनुपम सुख से संयुक्त और नेत्रों को आनन्दाश्रुओं से पूर्ण कर देता है । इस प्रकार केवल जिनवाणीका श्रवण भी विविध प्रकार के कल्याण का एकमेव कारण होता है ॥ २० ॥...... ....... १७) 1 समानकालं. 2 उपक्रियाम् उपकारं करोति. D उपकारं. 3 इदं कौतुकम् । १८) 1 निरा. करोति. D विनाशयति. 2 शोधयति. D स्फेटयति. 3 ज्ञानस्य परिणता । १९) 1 PD चोरयति. 2 पोषयति. 3 सुखम्. 4 स्फेटयति. D क्रोधादिरूपतापं विनाशयति । २०) 1 कॉ. 2 D कारणम् ।.....
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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