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११६ - धर्मरत्नाकरः -
[६. १३433) वाचकमुख्यो ऽप्याख्यत्संज्ञानादीनि मुक्तिमार्ग इति ।
न च मार्गणीयमपरं परमस्ति महात्मनां मुक्तेः ॥ १३ 434) यो दिशति मुक्तिमार्ग परोपकारी ततो ऽपरो न परः ।
परमपदानन्दादिव भवभुवनसमुद्भवानन्दः ॥ १४ 435) समीहमानैः स्वपरोपकारं ज्ञानं सदा देयमचिन्तयद्भिः ।
परिश्रमं श्रीश्रमणैः स्वकीयं कृत्यान्तरं वा सुतरामतन्द्रः ॥ १५ 436) नास्मिंश्चित्तं चरति सुचिरं चिन्तनीयान्तरेषु
प्रायः कायो रचयति न वा दुष्टचेष्टामनिष्टाम् । व्यग्रं वक्त्रं वदति न परं येनं सावधजातं धर्मादानं तदिदमुदितं ज्ञानदानं प्रधानम् ॥ १६
वाचक मुख्य- आचार्य उमास्वामी ने भी ' सम्यग्ज्ञानादि – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र- मोक्षके मार्ग हैं, ऐसा कहा है। और महापुरुषों को उस मोक्ष को छोडकर अन्य किसी को खोजना नहीं हैं, किन्तु एक मात्र उसी मोक्ष को खोजना है, तथा उसका उत्कृष्ट साधन यह सम्यग्ज्ञान ही है ॥ १३ ॥
जो परोपकारी, महापुरुष मोक्षमार्ग का कथन करता है उससे दुसरा कोई जगत् में उत्कृष्ट परोपकारी नहीं है । जैसे परमपद (मोक्ष) का आनन्द ही सर्वोत्कृष्ट है, उस से संसार रूप घर में उत्पन्न हुआ आनंद कदापि उत्कृष्ट नहीं हो सकता है ।। १४ ॥
___ स्वयं अपने और सार्मिक जनके उपकार करने की इच्छा रखनेवाले ज्ञानी मुनिराजों को परिश्रमका विचार न करके सदा ज्ञान का दान करना चाहिये । अथवा उन्हें अपने इतर कृत्य की चिन्ता न करते हुए आलस्य को छोडकर स्वयं ही उस ज्ञानका दान करना चाहिये ॥ १५ ॥
इस ज्ञान के प्राप्त होने पर मन विचारयोग्य किन्हीं इतर कार्यों में दीर्घकालतक संचार नहीं करता है। शरीर प्रायः अनिष्ट दुष्ट चेष्टा को नहीं करता है - वह हिंसादि हीन कृत्यों में प्रवृत्त नहीं होता है। तथा मुख से व्याकुल हो कर पापसंयुक्त कार्यों का कथन नहीं करता है । इसीलिये धर्म ग्रहण का कारण होने से इस ज्ञानदान को प्रधान कहा गया है ॥१६॥
१३) 1D अर्हन्. 2 उक्तवान्. 3 कथयामास. 3 D विचारणीयं न. 4 D योगिनां. 5 D ज्ञानात् । १५) 1D वाञ्छद्भिः . 2 करणीयमाश्रमम्. 3 D मुनिभिः कृतश्रमम् । १६) 1 ज्ञाने. D ज्ञानावलम्बे ।