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- धर्मरत्नाकरः424) अन्यच्च धर्ममूलं करुणा सा' ज्ञानकारणात्सिद्धा ।
सिद्धान्ते ऽपि प्रथितं प्रथमं ज्ञानं ततः करुणा ॥ ४ 425) धर्मेण चाखिलसुखानि समीहितानि
मामरेषु मनुजो लभते हितानि । धर्मः समस्तसुखसिद्धिनिमित्तमुक्तः
सर्वेण वादिनिवहेन विना विवादम् ॥ ५ 426) तद्धर्मसाधनमिदं दर्दताखिलानि
सौख्यानि धर्मजनितानि समर्पितानि । वित्तं यथा वितरता वनितारतादि
वस्तु नि चित्तसुलभानि विलोभनानि ॥ ६ 427) लोके ऽपि रूपके दत्ते प्रदत्तं भोजनं जनः ।
हेतौ कार्योपचारेण निर्विचारं वदत्यदः ॥ ७
दुसरे, धर्म का मूल कारण जो दया है, वह भी ज्ञान के निमित्त से सिद्ध होती है। आगम में भी पहिले ज्ञान और तत्पश्चात् दया प्रसिद्ध है ॥ ४ ॥
प्राणी धर्म के आश्रय से मनुष्य जन्म में और देव जन्म में उत्पन्न हो कर संपूर्ण इच्छित सुखों और हितों को प्राप्त करता है। सर्व वादिसमूहने निर्विवाद रूप से उस धर्म को समस्त सुखों की सिद्धि का निमित्त कहा है ॥ ५ ॥
____ जो उस धर्म के साधनभूत इस ज्ञानको दिया करता है उस ने धर्मसे उत्पन्न होनेवाले सभी सुखों को इस प्रकार से दे दिया समझना चाहिये, जिस प्रकार कि धनको देनेवाला व्यक्ति मन को सुलभ रूपसे लुभानेवाली स्त्री सम्भोगादि मनोज्ञ वस्तुओं को दे देता है ॥ ६ ॥
लोक में भी यदि किसीने रुपया दिया तो मनुष्य निर्विवाद रूपसे कहता है कि इसने मुझे भोजन दिया। इस लोक व्यवहार में निमित्तभूत कारण (रुपया) में कार्य (भोजन) का उपचार है ॥७॥
४) 1 सा करुणा. 2 D विस्तरितम् । ५) 1 मनुष्यदेवेषु भवेषु. 2 PD मनुष्यः. 3 D कथितः । ६) 1 तस्य धर्मस्य. 2 D दातृपुरुषेण. 3 ददता पुरुषेण. 4 लोभोत्पादकानि चित्तरञ्जकानि । ७) 1 ज्ञानम् ।