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[ ६. षष्ठो ऽवसरः ]
[ ज्ञानदानफलम् ]
421) ज्ञानस्यास्माद्दानमत्रा निदानं दातुर्लातुर्धर्मसिद्धे निदानम्' । ईदृङ्नान्यत्स्यात्सुखानां निधानं भव्यास्तेनं प्रोच्यते तत्धानम् ॥ १
422) अभयान्नादिभ्यां तु प्रवर्तन निवर्तने न मर्त्यानाम् । अनर्थे च यथा ज्ञानात्तेनोत्तमं ज्ञानम् ॥ २ 423) सर्व पुरुषार्थसिद्धे र्निबन्धनं धीधना वदन्तीदम्' । तेन ज्ञानं ददता दत्ताः सर्वे ऽपि पुरुषार्थाः ॥ ३
हे भव्य जीवो ! आगामी भोगाकांक्षा से रहित जो ज्ञान का दान किया जाता है वह यहाँ दाता और ग्रहीता दोनों के लिये धर्मसिद्धि का कारण होता है । इस ज्ञानदान के सदृश और दूसरा कोई सुखका भंडार (कारण) नहीं है । इसीलिये उस प्रधानभूत ज्ञानदान का वर्णन किया जाता है ॥ १ ॥
जिस प्रकार मनुष्यों की उपादेय पदार्थ के विषय प्रवृत्ति और अनर्थ विषय में निवृत्ति ज्ञान के द्वारा हुआ करती है, उस प्रकार उनकी वह प्रवृत्ति और निवृत्ति अभय व अन्न आदि के द्वारा सम्भव नहीं है । इसी कारण ज्ञान को उत्तम माना गया है ॥ २ ॥
ज्ञान धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति का कारण है ऐसा बुद्धिरूपी धन के धारक आचार्य कहते हैं । इसलिये जो उस ज्ञान को देता है, समझना चाहिये कि उसने सब ही पुरुषार्थों को दे दिया है ॥ ३ ॥
१) 1 PD निदानरहितम्. 2 दातृपुरुषस्य. 3 गृह्णतः पुरुषस्य पात्रस्य. 4 कारणम्. 5 D भवेत्, 6 हे भव्याः. 7 तेन कारणेन. 8 PD ज्ञानदानम् । ३ ) 1D ज्ञानम् 2 दातृपुरुषेण ।
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