________________
-५० १२६०]]
- दानफलम् -
412 ) ख्यातं मुख्यं जैनधर्मप्रधानं श्राद्वस्योक्तं द्वादशं तव्रताम् । दत्तं पूज्यैः कीर्तितं चागमज्ञैर्युक्त्या युक्तं दीयतां निर्विवादम् ॥१२२ 413) किंचिद्दायकमुद्दिश्य किंचिदुद्दिश्य याचकम् ।
देय' च किंचिदुद्दिश्य निषिद्धं वै तथागमे ॥ १२३ 414) त्यक्तारम्भो यथारभ्य साधुभ्यो ऽप्यशनादिकम् । न दद्यात्पापिने ऽन्योऽपि दानमेतत्प्रवर्तनम् ॥ १२४ 415) कन्याफलं यथोद्दिश्य वापीकू पसरांसि वा ।
"
दानं दद्यान्न धर्मार्थी ध्वस्तयुक्तफलादिकम् ।। १२५ 416) उत्सर्गेणापवादेनं निश्चयाद् व्यवहारतः ।
क्षेत्रपात्राद्यपेक्षं च सूत्रं योज्यं जिनागमे ॥ १२६
१
देते हैं, यह एक पाप हुआ, तथा साधुओं की जो वे निष्कारण निन्दा करते हैं, यह दूसरा पाप हुआ, इस प्रकार से वे दोनों ही घोर पापों को ग्रहण करते हैं । ठीक है - बेचारे पापी लोग पापों से कभी तृप्त नहीं होते हैं ॥ १२१ ॥ जो प्रसिद्ध दान मुख्य जैन धर्म में प्रधान है उसे यद्यपि संख्या में बारहवाँ व्रत कहा गया है, तो भी उसे श्रावक के व्रतों में प्रथम व्रत समझना चाहिये । उक्त दान को पूज्य पुरुषों ने दिया है और आगम के ज्ञाता जनों ने उसकी स्तुति की है । इसलिये युक्ति से युक्त उस दान को विना किसी विवाद के देना योग्य है ॥ १२२ ॥
व
आगम में किसी दान का निषेध दाता की अपेक्षा से, किसीका निषेध याचक ( पात्र ) की अपेक्षा से और किसीका निषेध देय वस्तु की अपेक्षा से किया गया है ॥ १२३ ॥
यथा- आरम्भत्यागी सद्गृहस्थ को भोजन आदि का आरम्भ करके साधुओं के लिये भी दान नहीं देना चाहिये । इसी प्रकार आरम्भरत गृहस्थ भी पापी मनुष्य को आहारादिक नहीं देवे । कारण कि उस दान से उसकी पाप में ही प्रवृत्ति होनेवाली है ( ? ) ॥ १२४॥
धर्मार्थी दाता कन्याफल की अपेक्षासे जैसे कन्यादान नहीं करता है वैसे ही उसे वापी, कुआँ, सरोवर और तालाब आदिका भी फल की अपेक्षा से दान करना योग्य नहीं हैं । तथा बिगडे हुए व उच्छिष्ट फलादिक देना भी योग्य नहीं है ।। १२५ ।।
•. जिनागम में उत्सर्ग और अपवाद, निश्चय और व्यवहार, क्षेत्र व पात्र आदिको अपेक्षा सूत्र की योजना करनी चाहिये ॥ १२६ ॥
१२२) 1 श्रावकस्य. 2 D अनिदानवन्द्येन । १२३ ) 1D दातव्यम् । १२५ ) ID सरोवराणि । १६ ) 1 संक्षेपेण. 2 विस्तारेण ।