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धर्मरत्नाकरः -
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[५. ११६
406) चतुर्दशाद्द् गुणस्थानात्सर्वे सर्वे ऽप्यपेक्षया । निर्गुणाः सगुणास्तु स्युस्ततीयादुत्तरे' क्रमात् ॥ ११६ 407) साधवो दुष्षमाकाले' कुशीलवकुशादयः ।
प्रायः शबलचारित्राः ' सातिचाराः प्रमादिनः ॥ ११७ 408) सगुण निर्गुणो ऽपि स्यान्निर्गुणो गुणवानपि ।
शक्यते न च निश्चेतुं' मान्यः सर्वो ऽप्यतो मुनिः ॥ ११८ 409) गुणानुरागितैवं स्याद्दर्शनाभ्युन्नतिः परा ।
लोकेऽत्र पात्रता पुंसां परत्र कुशलं परम् ॥ ११९ 410) अक्रूरता गुणापेक्षा' दोषोपेक्षा दयालुता ।
उदारतोपकारेच्छा विधेया सुधिया सदा ॥ १२० 411) एकं पापं देवभावे ऽप्यदानं साधोरन्यन्निन्दया निर्निमित्तम् । गृह्णन्त्युच्चैः क्रूरचित्ता वराकाः पापैः पापा नैव तृप्यन्ति लोका : ।। १२१
चौदहवें गुणस्थान से पूर्व गुणस्थानवतीं सब ही अपेक्षाकृत निर्गुण हैं- हीन गुणवाले अथवा गुणों से रहित हैं । तथा तीसरे गुणस्थान से आगे के गुणस्थानवर्ती सब ही जीव क्रम से अपेक्षाकृत सगुण - सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित अथवा परिपूर्ण गुणवाले - हैं ।। ११६ ॥
इस पंचमकालमें कुशील व बकुशादिक साधु प्रायः शबल चारित्र - दूषित चरित्रवाले - अतिचारों से सहित और प्रमादयुक्त होते हैं ॥ ११७ ॥
जिसे सगुण समझा है वह कदाचित् निर्गुण हो सकता है । और जिसे निर्गुण समझा है वह सगुण हो सकता है । इस प्रकार जब सगुण और निर्गुण का निश्चय करना शक्य नहीं है तब ऐसी अवस्था में जिनलिंगधारी सब ही मुनिजनका सत्कार करना चाहिये ॥ ११८ ॥ इस प्रकार से - गुणी और निर्गुणका विचार न करके जिनलिंगधारक साधुमात्रको आहारादिके देनेसे - दाताजनोंकी गुणानुरागिता, सम्यग्दर्शन की उत्कृष्ट उन्नति, इस लोक में पात्रता और परलोक में उत्कृष्ट हित होता है ॥ ११९ ॥
निर्मलबुद्धि मनुष्य को दुष्टता का परित्याग, गुणों की अपेक्षा, दोषों की उपेक्षा, दयालुता, उदारता- दातृत्व बुद्धि और परोपकार की इच्छा सदा ही करनी चाहिये ॥ १२० ॥
जिनका मन क्रूर है ऐसे पापी लोग देने योग्य आहारादिक के होने पर भी जो नहीं
११६) 1D भवेयुः. 2 तृतीयगुणस्थानादुपरि. ११७ ) 1 P° दु:खमाकाले. 2 D° कलुषितचारिताः। ११८) 1 निश्चयं कर्तुम्. 2D कारणात्। १२० ) 1 वाञ्छा. 2 अवगगना 3 कर्तव्या. 4 बुद्धियुक्तेन ।