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- दानफलम् - 402) अपात्रबुद्धिं ये साधौ लिगिमात्रे ऽपि कुर्वते ।
नूनं न पात्रतास्त्येषां यथात्मनि तथा परे ॥ ११२ 403) सुद गादिपरं पात्रं सर्वमुक्तं जिनागमे।
दानं तु निर्गुणेभ्यो ऽपि दातव्यमनु कम्पया ॥ ११३ 404) आहारवस्त्रामत्रादिदाने पात्रपरीक्षणम् ।
कुर्वन्तः किं न लज्जन्ते दरिद्राः क्षुद्रचेतसः ॥११४ 405) सर्वज्ञो हृदि वाचि तस्य वचनं काये प्रणामादिकं
प्रारम्भो ऽपि च चैत्य कृत्यविषयः पापाज्जु गुप्सा परा । . हीनानामपि सन्त्यमी शुभदृशां येषां गुणा लिडिगनां
ते मन्ये जगतो ऽपि पात्रमसमं शेषं किमन्विष्यते ॥ ११५
यदि अपने पद के अयोग्य जल व अन्नादि का स्वीकार करते हैं तथा अयोग्य वसति व शय्या आदिका ग्रहण करके जिनमत में मलिनता को उत्पन्न करते हैं तो यह दोष शक्ति होनेपर भी उपेक्षा करने वाले श्रावकों पर आता है- इसे श्रावकों का दोष समझना चाहिये ॥ १११॥
जो किसी विशेष साधुके अथवा लिंगी-साधु-मात्र के विषय में अपात्र बुद्धि को करते हैं-उसे पात्र नहीं समझते हैं- उनकी निश्चय से जैसे स्वयं अपने में पात्रता नहीं है वैसे हो वे दूसरे के- साधु के विषय में भी अपात्रता की कल्पना करते हैं ॥ ११२॥
जो सम्यग्दर्शन आदिसे सम्पन्न हैं वे सब पात्र हैं ऐसा जिनागम में कहा गया है। इसके अतिरिक्त दान तो निर्गुणों को भी- सम्यग्दर्शन आदि गुणों से रहित जनों को भी- दया भाव से देना चाहिये ॥ ११३॥
आहार वस्त्र व पात्र आदि देने के लिये पात्र की परीक्षा करनेवाले दरिद्र श्रावक अपनी इस क्षुद्र मनोवृत्ति पर लज्जित क्यों नहीं होते हैं ? ॥ ११४ ॥
चरित्र से हीन होने पर भी जिन उत्तम दृष्टिवाले - सम्यग्दृष्टि -- लिंगियों के हृदय में सर्वज्ञ, वचन में उसकी वाणी, शरीर में उनके लिये प्रणामादिक, जिनमन्दिर व जिन प्रतिमा संबंधी कार्य विषयक प्रकृष्ट आरम्भ और मन में पाप से अतिशय ग्लानि ये गुण होते हैं उनको मैं लोक में अनुपम पात्र मानता हूँ। फिर भला शेष को-परिपूर्ण संयमी आदिको- क्यों खोजा जाता है ? ॥ ११५
११४) 1 D सन्तः. 2 हीनाः। ११५) 1 D सर्वज्ञदेव. 2 D हृदये. 3 D वचने. 4 विचार्यते D धर्मकार्येऽन्यत्किमवलोक्यते ।