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________________ १०८ - धर्मरत्नाकरः - [ ५. १०७ 397) धर्मे स्थैर्यं स्यात्कस्यचिच्चञ्चलस्य प्रौढं वात्सल्यं बृंहणं सद्गुणानाम् । दानेन श्लाघा शासनस्यातिगुर्वी दातृणामित्थं दर्शनाचारशुद्धिः ॥ १०७ 398) औदार्य वयं' पुण्यदाक्षिण्यमन्यत् संशुद्धो बोधः पातकात्स्याज्जुगुप्सा आख्यातं मुख्यं सिद्धधर्मस्य लिङ्ग लोकप्रेयस्तद्दातुरेवोपपन्नम् ॥ १०८ 399 ) तीर्थोन्नतिः परिणतिश्च परोपकारे ज्ञानादिनिर्मलगुणावलिकाभिवृद्धिः । वित्तादिवस्तुविषये च विनाश बुद्धिः संपादिता भवति दानवतात्मशुद्धिः ॥ १०९ 400) सीदन्ति पश्यतां येषां शक्तानामपि साधवः । न धर्मो लौकिको ऽप्येषां दूरे लोकोत्तरः स्थितः ॥ ११० 401) सीदन्तो यतयो यदप्यनुचितं किंचिज्जलान्नादिकं स्वीकुर्वन्ति विशिष्ट भक्तिविकला : कालादिदोषादहो । मालिन्यं रचयन्ति यज्जिनमतस्यास्थानशय्यादिना श्राद्धानामिदमेति दूषणपदं शक्तावपेक्षाकृताम् ॥ १११ दान देने से किसी चञ्चल - धर्ममार्गसे च्युत होते हुए - साधर्मिक की उसमें स्थिरता होती है, धार्मिकों में प्रौढ ( अतिशय ) वात्सल्य प्रगट होता है, धार्मिकों में सद्गुणों की वृद्धि होती है, तथा दान देने से जिनशासन की बडी प्रशंसा होती है। इस प्रकार दाताजन के दर्शनाचाकी शुद्धि होती हैं ॥ १०७ ॥ श्रेष्ठ उदारता, पवित्र मृदुता या सरलता, निर्मलज्ञान, पाप से ग्लानि, तथा लोकप्रियता afe fea धर्म चिन्ह कहे गये हैं । और ये सब गुणं दाता को ही प्राप्त होते हैं ॥ १०८ ॥ दान देने से तीर्थ की उन्नति, दाता की परोपकार परिणति ( प्रवृत्ति), ज्ञानादि निर्मल गुगसमूह की वृद्धि, धन आदि वस्तुओं में नश्वरता का विचार और दाता की आत्मशुद्धि भी है ।। १०९ ॥ दुःख दूर करने में समर्थ हो कर जो श्रावक साधुजन को कष्ट में देखकर भी उनके दुःख को दूर नहीं करते हैं, उनके लौकिक धर्म भी सम्भव नहीं है, फिर भला लोकोत्तर धर्म तो उनसे बहुत दूर है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ११० ॥ रोगादि से पीडित साधुजन विशिष्ट भक्ति से रहित होते हुए काल आदिके दोष से १०७) 1 वर्धनम् | १०८ ) 1 श्रेष्ठम्. 2 धर्म लिङ्गम्. 3 युक्तम् । १०९ ) 1 पुरुषेण । ११० ) उत्तमो धर्मः सोऽपि नास्ति । १११ ) 1 मलिनता. 2 श्रावकाणाम् 3 शक्तौ सत्यां 4 अवगणनाकराणाम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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