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________________ ૨૦૬ धर्म रत्नाकरः - 389) किचोपदेशेन विनापि भक्तः शक्तश्च दत्ते हि यथाकथंचित् । मिथ्याविचारं च करोत्यभक्तस्तुच्छस्वभावः समदातुकामः ॥ ९९ 390) भक्तिव्यक्ति: कथमिव भवेदागतानां यतीनां याहारं न पचति गृही सुन्दरं सादरं च । अन्यस्यापि स्वजनहृदयः कृत्यमौचित्यमित्थं गौरव्याणां किमुत जगतः साधु साधर्मिकाणाम् ॥ १०० 391) नामापि साधु लोकानामालोकादि विशेषतः । कोSपि पुण्यैरवाप्नोति दानादि तु किमुच्यते ।। १०१ 392) एष्टव्यमित्यमेवेदं मध्यस्थैः सूक्ष्मद् ष्टिभिः । विधातुं' बुध्यते श्राद्धे वन्दनाद्यपि नान्यथा ॥ १०२ [ ५.९९ - तभी दाताको उसके विषय में निवेदन करना ही चाहिये । कारण यह कि ऐसा करने से साधु के उसे ग्रहण न करने पर भी दाता के शुभ परिणाम से उसे पुण्य की प्राप्ति होती है ॥ ९८ ॥ दूसरे, जो समर्थ दाता साधुजन के विषय में भक्ति रखता है वह उनके लिये उपदेश के विना भी किसी न किसी प्रकारसे आहारादि को देता ही है । परन्तु जो मुनिजन में अनुराग नहीं रखता है वह हीन स्वभाववाला मनुष्य नहीं देने की इच्छा से मिथ्या विचार को किया करता है ॥ ९९ ॥ यदि गृहस्थ आदर से सुन्दर आहार को नहीं पकाता है तो आये हुए मुनि के विषय में उसकी भक्ति कैसी प्रगट हो सकती है ? जिसका आत्मीय जनों के विषय में प्रेम है ऐसा गृहस्थ जब अन्य व्यक्ति का भी मधुर भाषणपूर्वक दानादि देकर उचित आदर करता है तब क्या वह जिनका गौरव जगत् करता है ऐसे साधर्मिक साधुजन के लिये समुचित आहारादि देकर उनका आदर सत्कार नहीं करेगा ? ॥ १०० ॥ कोई भी भाग्यशाली मनुष्य साधुजन के नाम को भी पुण्योदयसे सुन पाता है व उनक दर्शन तो उसको विशेष पुण्यसे ही प्राप्त होता है । फिर यदि उसको उनके लिये दान देने आदिका प्रसंग प्राप्त होता है तो क्या कहना है- वह तो महापुण्योदय से ही प्राप्त समझना चाहिये ॥ १०१ ॥ - जो मध्यस्थ - पक्षपात से रहित और सुक्ष्म विचारक हैं उन्हें ' यह ऐसा ही है ' ऐसा स्वीकार करना चाहिये । कारण यह कि ऐसा स्वीकार करने के विना श्रावक मुनियों के लिये वन्दना कैसे करना चाहिये, यह भी न जान सकेंगे ॥ १०२ ॥ - (१००) 1 यदि पाकं न करोति तदा भक्तिः कथं प्रकटा भवति 2 गृही. 3 माननीयानाम् । १९२) 1 अङगीकर्तव्यम्. 2 कर्तुम्. 3 श्रावकै:. 4 D° वञ्चनाद्यपि ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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