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________________ -५.९८] - दानफलम् - 383) यस्मात्सति निर्वाहे बालग्लानादिहेतुविरहे वा। गृह्णन्त्यकल्पनीयं न साधवो वारितं तेन ॥ ९३ 384) अनिर्वाहे तु गृह्णन्ति ग्लानादेश्च प्रयोजने । देशाधपेक्षं कल्प्यादि तथा चोवाच तार्किकः ॥ ९४ 385) किंचित्कल्प्यमकल्प्यं स्यात्किचित्स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या शास्त्रं छात्राय॑ भेषजाधं वा ॥ ९५ 386) देशं कालं पुरुषावस्था मुपयोगशुद्धिपरिणामान् । प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ॥ ९६ 387) ग्रहीष्यन्ति न वा ते तु ज्ञातुमेतन शक्यते । दातव्यं सर्वथा च स्यात्साधुभ्यो धर्मसिद्धये ॥ ९७ 388) उक्तं चेच्छेन्न वा साधुस्तथापि विनिवेदयेत् । अगृहीते ऽपि पुण्यं स्यादातुः सत्परिणामतः ॥ ९८ __ कारण यह कि निर्वाह के होने पर अर्थात् कल्प्य आहार के मिल जानेपर अथवा बाल और व्यधिग्रस्त आदि निमित्त के अभावमें साधुजन अकल्प्य आहार को ग्रहण नहीं करते हैं, इस. लिये अकल्प्य आहार का निषेध किया गया है ॥ ९३ ।। इसके विपरीत निर्वाह के न होने पर-कल्प्य आहारके न प्राप्त होनेपर- तथा बाल व व्याधिग्रस्त आदि प्रयोजन (निमित्त) के होनेपर साधुजन देश कालादिकी अपेक्षा से कल्प्यादिक आहार को ग्रहण करते हैं । इस विषय में तार्किक विद्वान् ने ऐसा कहा है ॥ ९४ ॥ पिंड (आहार), शय्या, शास्त्र, छात्र आदि अथवा औषध आदि; इनमें देश कालादिकी अपेक्षा कोई कल्प्य तो अकल्प्य और अकल्प्य भी कल्प्य हुआ करता है ॥ ९५ ॥ देश, काल, पुरुष की अवस्था, उपयोग, शुद्धि और परिणाम; इनका विशेष विचार करके कल्प्य होता है । एकान्तसे – देशकाल आदिकी अपेक्षा के विना - कल्प्य की कल्पना करना योग्य नही है ॥ ९६ ॥ वे - साधुजन - उसे ग्रहण करेंगे या नहीं ग्रहण करेंगे, यह जानना शक्य नहीं है। इसलिये धर्म की सिद्धि के लिये साधुओं को सब प्रकारसे आहारादिका दान करना चाहिये ॥ ९७॥ दाताके निर्देश कर ने पर पात्र उसे ( निर्दिष्ट वस्तु को ) ग्रहण करे अथवा न करे, ९६) 1 P 'पुरुषमवस्थाम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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