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१०४ - धर्मरत्नाकरः -
[५.८4378) व्याख्येयमेवमेवेदमन्यथा न व्रताद्यपि ।
देयं ग्राहयं च केनापि संपूर्ण विधिना विना ॥ ८८ 379) अथ कालादिदोषेण न्यूनो ऽपि विधिरिष्यते।
व्रतादेरिव भवतादेर्दाने ऽप्येष समिण्यताम् ॥ ८९ 380) आरम्भवर्जकं वा दायकमुद्दिश्य दर्शितं कल्प्यम् ।
देयं कृत्वा ददतः प्रतिमापन्नस्य भङगभयात् ॥९० 381) यो ऽपि क्वचिदपि समय कृत्वा ददतो निवेदितो दोषः ।
सो ऽप्येवंविधविषये विदुषां योज्यो न सर्वत्र ॥ ९१ 382) यदि वाधिकृत्य पात्रं सामान्येनैव निनिमित्तमिदम् ।
देयं कल्प्यं जल्पितमनल्पबुध्दयावबोद्धव्यम् ॥ ९२ ___इस उपर्युक्त औसगिक व आपवादिक विधि का व्याख्यान इसी प्रकार से -औत्सर्गिक विधि से दिया गया दानादि उत्तम तथा शेष ( अपवाद विधि से दिया गया ) दानादि मध्यम या जघन्य होता है, परन्तु होता वह भी निर्दोष है; ऐसा - करना चाहिये । कारण यह कि यदि ऐसा उसका व्याख्यान नहीं किया गया तो फिर विधि के बिना उस दान के समान संपूर्ण व्रत आदि भी न तो किसी के द्वारा दिया जा सकेगा और न किसी के द्वारा ग्रहण भी किया जा सकेगा॥ ८८॥
इसलिये यदि कालादि के दोष से उक्त व्रतादि के ग्रहण में कुछ हीन विधि भी अभीष्ट मानी जाती है तो फिर उक्त व्रतादि के समान आहारादिक के दान में भी कालादि दोष से उस हीन विधि को स्वीकार करना चाहिये ।। ८९ ।।
__ अथवा, आरम्भ से रहित दाता को लक्ष्य कर के पूर्वोक्त कल्प्य दिखलाया गया है; क्योंकि आरम्भ त्याग प्रतिमा को प्राप्त श्रावक यदि देयको कर के -आहारादि को तैयार कर के देता है तो उसके उस स्वीकृत प्रतिमा के भंग होने का भय है ॥ ९० ॥
. आहारादि को स्वयं निर्मित कर के देने वाले श्रावक को जो किसी आगम ग्रन्थ में दोष कहा गया है, उसकी भी योजना विद्वान् मनुष्य को इसी प्रकार के विषय में करना चाहिये, न कि सब प्रकार के विषय में ।। ९१ ॥
अथवा सामान्यतया पात्र को उद्देश्य करके व्याध्यादि निमित्त के विना उदार बुद्धि से कल्प्य को देय कहा गया है ऐसा समझना चाहिये ॥ ९२ ॥
८९) 1 ऊनः हीनो ऽपि विधिः. 2 ऊनविधिः । ९०) 1 पात्रम्. 2 दातुः पुरुषस्य । ९१) 1 दोषः. 2 आगमे. 3 प्रयच्छतः पुरुषस्य. 4 दोषः. 5 पण्डितेन ।