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- दानफलम् -
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373) कल्प्यं योग्यं तु साधूनां धर्मकार्ये ऽपि कारणम् । वितीर्णमपि नायोग्यं गृह्णन्ति यतयो यतः ॥ ८३ 374) येान्यायागतं कल्प्यं देयमेवेति कथ्यते ।
लोभेन शोभनं दानमदानं वा निवार्यते ॥ ८४ 375 ) तथा कल्पये ऽपि सत्येव कश्चिद्दानाय दुर्विधः । वित्ते ऽभिन्नमन्नादि सो ऽमुना प्रतिषिध्यते ।। ८५ 376 ) विधित्सर्गको वायमुत्तमं दानमीदृशम् ।
अन्यत्तु मध्यमादि स्यान्न तु दोषाय जायते ॥ ८६ 377 ) सर्वत्र चास्ति न्यायो ऽयमुत्कृष्टमुपदिश्यते । अन्यत्तु न प्रतिक्रुष्टेमदुष्टं पुण्य पुष्टये ॥ ८७
फल नहीं प्राप्त होता है । इसलिये स्वामी ( दाता) को न्यायप्राप्त अपने ही आहारादिक पदार्थ को देना चाहिये, ऐसा कहा है ॥ ८२ ॥
कारण इसका यह है कि दाता के द्वारा दिये गये कल्प्य ग्रहण करने योग्य उचित आहारादि ही साधुओं के स्वाध्यायादि कार्यों में सहायक होते हैं । इसीलिये वे अयोग्य आहार के देने पर भी मुनिजन उसे ग्रहण नहीं करते हैं ॥ ८३ ॥
अथवा, जो आहारादि द्रव्य अन्यायसे प्राप्त किये गये हैं वे यदि साधुजन के लिये ग्रहण करने के योग्य हैं तो उन्हें भी देना ही चाहिये । कारण यह कि ऐसा करने से लोभ के वश हो कर जो निन्द्य दान दिया जाता है अथवा दिया ही नहीं जाता है उसका इससे निषेध
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है ॥ ८४ ॥
तथा कोई दरिद्री आहारादिक के कल्प्य देने योग्य - होने पर भी उसे अभिन्न करता है, अर्थात् योग्य और अयोग्य आहारादिक को एक करता है । इस से वह निषिद्ध माना गया हैं ।। ८५ ॥
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अथवा मुनिजन के लिये न्यायप्राप्त कल्प्य आहारादि को देना चाहिये, यह पूर्वोक्त विधान औत्सर्गिक - सामान्य हैं । इसलिये इस विधि के अनुसार दिया गया दान उत्तम माना गया है । इस से भिन्न - अन्याय प्राप्त व अकल्प्य आहारादिक -दान को मध्यम व जघन्य समझना चाहिये और वह दोषजनक नहीं है ॥ ८६ ॥
यह न्याय - पूर्वोक्त विधान - सर्वत्र उत्कृष्ट कहा गया है। इस से भिन्न दान का विधान निषिद्ध नहीं हैं, किन्तु वह भी दोष रहित व पुण्य की पुष्टि का कारण है ।। ८७ ।।
८३) 1 दत्तम् । ८४) 1 अथवा | ८५ ) 1 दीनो दरिद्रः । ८७) अनुत्कृष्टम् ।