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- धर्मरत्नाकर:
[५. ७७
367) यस्यानपानैः संतृप्ताः साधवः साधयन्त्यमी ।
स्वाध्यायादिक्रियां सारू तस्य पुण्यं तदुद्भवम् ॥७७ 368) ब्रूपै ऽथ व्याधिबाधायामभ्याहत्य विधीयते ।
साधूनामौषधान्नादि शेषकाले तु दुष्यति ॥ ७८ 369) किं व्याधिबाधा साधूनां गौरव्या यदि वा गुणाः ।
गुणाश्चेद् भक्तपानादि दातव्यं व्याधिना विना ॥ ७९ 370) बुभक्षा च महाव्याधिः स्वाध्यायध्यानबाधिनी। . आर्तिप्रवर्तिनी भीमा शमनीयाशनादिभिः ॥ ८० 371) अथ न्यायागतं कल्प्यं देयमुक्तं न चापरम् ।
युक्तं तदुक्तं बोद्धव्यं मध्यस्थैः शुद्धबुद्धिभिः ॥८१ 372) अन्यायेनागतं दत्तमन्यदीयं हि निष्फलम् ।
तेन स्वकीयं दातव्यं स्वामिनेति निवेदितम् ॥ ८२
जिस दाता के अन्न पानी से तृप्त हुए मुनिजन आत्महितकर सब स्वाध्यायादि क्रियाओं को करते हैं, उससे उत्पन्न हुआ पुण्य उस दाता को प्राप्त होता है ।।७७ ।।
यदि यह कहा जाय कि साधुओं को व्याधिबाधा के होनेपर उन्हें औषधदान व अन्नदान करना योग्य हैं परन्तु अन्यकाल में अर्थात् उनकी नीरोग अवस्था में वह दोषजनक है; तो इसके उत्तर में हम पूछते हैं कि क्या साधुओं की रोगपीडा गौरवास्पद है या उनके गुण गौरवास्पद हैं ? यदि गुण गौरवास्पद हैं तो फिर रोग के बिना भी साधुओं को आहारपानादि देना ही चाहिये ॥ ७८-७९ ॥
भूख वह महाव्याधि है जो स्वाध्याय तथा ध्यान में बाधा उत्पन्न करती हुई पीडा को भी उत्पन्न करती है । इस भयंकर व्याधि को आहारादिके द्वारा शान्त करना चाहिये ॥ ८० ॥
इसके अतिरिक्त जिस अन्नादि द्रव्य को न्यायपूर्वक प्राप्त किया गया है तथा जो साधुजन के ग्रहण करने योग्य भी है वही द्रव्य देने के योग्य है, इतर द्रव्य - अन्याय से प्राप्त व ग्रहण के अयोग्य आहारादि-देने के योग्य नहीं है । इस प्रकार जो कहा गया है उसे पक्षपात से रहित निर्मलबुद्धि जन को योग्य समझना चाहिये ॥ ८१ ॥
अन्यायसे प्राप्त किये गये दूसरे के आहारादिक पदार्थों को देनेपर उस दान का कुछ
७७) 1 तस्मात् स्वाध्यायसकाशादुत्पन्नं पुण्यं तस्यापि भवति यस्यान्नपान । ७८) 1 ब्रवीषि । ८१) दयं द्रव्यमन्नादिकम् ।