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________________ - दानफलम् - १०१ 362) श्रद्धालुः किं श्राविका चेलनाख्या श्रीसिद्धान्ते विश्रुता' स्थैर्यात् । नानारूपैरौषधैः संस्कृतान्नं दत्त्वार्यायाः किं न संप्राचिकित्सत् ॥ ७२ 363) सीतया रामचक्रिभ्यां वने गुप्तसुगुप्तयोः । आश्चर्य पञ्चकं प्राप्तं दानात्तद्वद्धितं भुवि ॥ ७३ -५. ७६ ] 3 364) अन्यच्च देशकुलभूषणयोरुभाभ्यां ' कष्टं व्यनाशि निजजीवितसंशयेन । चण्डोपसर्गकरणाच्च महामुनीनां दुःखं सुदुःसहतरं समभूज्जटायोः ॥ ७४ 365) भूयांसो ऽन्ये ऽपि कथ्यन्ते पुण्यभाजो जिनागमे । कृत्वा कृत्यानि साधूनां संप्राप्ताः संपदं पराम् ॥ ७५ 366) ग्रहीतुं नाम नामापि भागधेयैर्नरैः परम् । साधूनां प्राप्यते दातुं भक्त्या भक्तादि किं पुनः ॥ ७६ थी, उसने श्रुतशाली मुनिराजों के लिये उत्तम आहारादि को संपादित कराकर उनकी इच्छा को दूर करते हुए क्या निःस्पृहतापूर्वक उनका उपचार नहीं किया था ? ॥ ७१ ॥ चलना रानी नाम की जो श्रद्धालु- सम्यग्दर्शन से संपन्न - श्राविका धर्म से च्युत होते हुए साधर्मी जन को उस धर्म में स्थिर कराने में आगमप्रसिद्ध है, उसने अनेक प्रकार की औषधियों से संस्कृत - मिश्रित -आहार को दे कर क्या आर्यिका की चिकित्सा नहीं की थी ? ॥ ७२ ॥ सीता के साथ राम और लक्ष्मणने दण्डकारण्य में गुप्त और सुगुप्त मुनियों को आहारदान देकर इस पृथिवी पर पंचाश्चर्यों को तथा उसी प्रकार अपने हित को भी प्राप्त किया था ॥ ७३ ॥ इसके अतिरिक्त उन्हीं रामचंद्र और लक्ष्मण ने अपने प्राणों को संकट में डालकर देशभूषण और कुलभूषण मुनियों के कष्ट को नष्ट किया था । तथा पूर्वभव में- दण्डक राजा की पर्याय में - महामुनियों के ऊपर घोर उपसर्ग करने से जटायु पक्षी को अतिशय दुःख उत्पन्न हुआ था || ७४ ॥ जिनागम में ऐसे अन्य भी अनेक पुण्यवान स्त्री-पुरुषों का वर्णन किया गया है, जिन्होंने साधुओं के कार्यों को कर के उत्कृष्ट वैभव को-स्वर्ग मोक्षादि की लक्ष्मी को प्राप्त किया है ॥७५॥ साधुओं का केवल नामग्रहण भी भाग्यशाली मनुष्यों को प्राप्त होता है, फिर भला भक्तिपूर्वक उनको आहारादि देने के प्रसंग में क्या कहा जाय ? उसकी प्राप्ति को तो विशेष पुण्य का फल समझना चाहिये ॥ ७६ ॥ ७२) 1 प्रसिद्धा. 2 चिकित्सतवती । ७३) 1 रामलक्ष्मणाभ्याम् । ७४ ) 1 रामलक्ष्मणाभ्याम् 2 विनाशितम्. 3 जटायुपक्षिणः दण्डकारण्यसंबन्धः पद्मचरित्रे प्रसिद्धः । ७५ ) 1 बहुव:. 2 करणीयानि । ७६) 1 अहो ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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