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________________ .१०० - धर्मरत्नाकरः . - - [ ५.६८ 358) श्रीमान्' द्वारवती पुरि प्रतिगृहं निर्माप्य स द्वेषजं 3 दत्त्वा व्याधिकदथितं मुनिवरं संप्राचिकित्सत्तराम् । तेनागृह्यतं निर्विकल्पमनसा दाता ग्रहीता ततो लपस्येते सुखसंतति प्रवचने प्रोक्तं विशेषादिति ॥ ६८ 359) शक्तितो भक्तितश्चापि रुक्मिणी हरिवल्लभा । उत्कृष्टश्रावकादीनां वैयावृत्त्यं चकार च ॥ ६९ 360 ) नानावग्रहकष्टितानथ रुजाग्रस्तान् व्रतैः कर्शितान् दिग्वासविहानभीष्टकरणाद भैषज्यतः पथ्यतः । इत्थं स्वेन परैरपि प्रतिदिनं प्रोल्ला सिवक्त्राम्बुजो गम्भीरः समुपाचरच्चिरतरं श्रीनन्दिषेणो मुनिः ॥ ७० 361) आर्या वर्या रेवती भक्तिनिष्ठा सम्यग्दृष्टिर्विश्रुता सुश्रुतानाम् । आहाराद्यं साधु संपादयन्ती वाञ्छा छेद किं न सोपाचचारं ॥ ७१ 2 द्वारावती नगरी में ऐश्वर्यशाली कृष्ण ने प्रत्येक घर में उत्तम औषध को तैयार करा कर उसे व्याधिसे व्यथित मुनिराज को देते हुए उनका उपचार किया था । तथा उस मुनिराज ने भी उसे निराकुल भाव से ग्रहण किया था। इससे निश्चित है कि इस प्रकार के दान से दाता और उसे ग्रहण करनेवाला पात्र दोनों ही सुखपरम्पराको प्राप्त करते हैं। इसका विवेचन आगम में विशेष रूप से किया गया है ॥ ६८ ॥ कृष्ण की प्रिय पत्नी रुक्मिणीने अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार उत्कृष्ट श्रावक आदिका वैयावृत्त्य किया था - उन्हें आहारादि के द्वारा संमानित किया था ।। ६९ ।। नन्दिषेण मुनिने अनेक अवग्रहों - उपनियमादिकों से पीडित, रोगों से आक्रान्त और व्रताचरणों से कृशता को प्राप्त हुए दिगम्बर मुनिसमूहों का हितकर औषधों से अभीष्ट किया था । इस प्रकार उस नन्दिषेण मुनिने स्वयं तथा दूसरों के द्वारा भी दीर्घकाल तक प्रतिदिन उनका उपचार कराया था । उस समय उस गम्भीर नन्दिषेण मुनि का मुख कमल अतिशय प्रफुल्लित रहा है ॥ ७० ॥ जो मान्य, श्रेष्ठ व भक्ति में संलग्न रेवती रानी स्थिर सम्यग्दृष्टि के रूप में प्रसिद्ध ६८) 1 विष्णु:. 2 पीडितम्. 3 निर्व्याधिमकरोत्. 4 मुनिना 5 गृहीतम 6 लभते । ७० ) 1 पीडितान्. 2 मुखकमल: । ७१ ) 1 वाञ्छापूरणम्. 2 रेवती राणी. 3 कृतवती ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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