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- दानफलम् - 354) कृष्यादिकर्म बहुजङ्गमजन्तुघाति
कुर्वन्ति ये गृहपरिग्रहभोगसक्ताः । धर्माय रन्धनकृतां किल पापमेषा
मेवं वदन्नपि न लज्जित एव दुष्टः ॥ ६४ 355) एवंविधस्याप्यबुधस्य वाक्यं सिद्धान्तबाहयं बहुबाधकं च ।
मूढा दृढं श्रद्दधते कदर्याः पापे रमन्ते ऽमतयः सुखेन ॥ ६५ 356) नाभेयादिभिरन्यजन्मनि मुने नाविधैरौषधै
स्तैलाभ्यञ्जनतो वराशन विधे रोगावगणस्यं वै । भक्त्यावेशवशादसौं शिवकरी गुर्वी चिकित्सा कृता
तस्याः सौख्यपरंपरामनुपमा भुक्त्वा शिवं ते ऽगमन् ॥ ६६ 357) वह्निप्लुष्टं नैगमश्चोज्जयिन्यां श्राद्धः' साधु साधु तैलादिपाकैः।
चित्राकारैश्चारुभिश्चोपकारैः कृत्वा कल्पं किं न कल्याणमायात् ॥ ६७ ____ जो गृहस्थ घर, परिग्रह तथा भोगों में आसक्त होकर बहुत से त्रस जीवों के घात के कारणभूत खेती आदिक कार्यों को करते हैं, उन्हें धर्म के लिये भोजन के तैयार करने में पाप का भागी कहनेवाले दुष्ट को लज्जा नहीं आती? (तात्पर्य, मुनियों को आहार देने के लिये जो आरम्भ होता है, उससे पाप अल्प और पुण्य महान् होता है अतः ऐसे आरम्भका निषेध करना अनुचित है) ॥ ६४ ॥
___ जो अज्ञानी जन लोभ के वशीभूत होकर इस प्रकार बोलनेवाले मूर्ख के भी आगमबाह्य और अतिशय बाधक वचन पर स्थिर श्रद्धा करते हैं, वे दुर्बुद्धि पाप में आनन्द से रममाण होते हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥ ६५ ॥
वृषभादि तीर्थंकरों ने पूर्व जन्म में रोगयुक्त मुनीश्वर की अनेक प्रकार की औषधों, तैलमर्दन और उत्कृष्ट आहार देने से जो भक्तिपूर्वक सुखदायक भारी चिकित्सा की थी उससे वे अनुपम सुखपरम्पराको भोग कर मुक्ति को प्राप्त हुए हैं ॥६६॥
उज्जयिनी नगरी में किसी वैश्य श्रावक ने अग्निसे जले हुए साधु को उत्तम तैलादि पाक से तथा और भी विविध सुन्दर उपचारों से नीरोग कर के क्या अपने स्वर्गरूप कल्याण को नहीं प्राप्त किया है ? अवश्य प्राप्त किया है । ६७ ॥ rrrrrrrrrrrrrrr
६४) 1 आहारादिनिष्पादनम्। ६५) 1 मतिहीनाः। ६६) 1 ऋषभनाथप्रभृतिभिः. 2 रोगपीडितस्य मुनेः. 3 चिकित्सा. 4 चिकित्सायाः. 5 गताः । ६७) 1 श्रावकः. 2 स्वर्गम्. 3 P° कल्याण माप ।