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________________ ९६ - धर्मं रत्नाकरः - - 343) न मिथ्यात्वात्प्रमादाद्वा कषायाद्वा प्रवर्तते । श्राद्ध' द्रव्यस्तवे तेन तस्य बन्धो ऽस्ति नाशुभः ॥ ५३ 344 ) शुभ: शुभानुबन्धीति बन्धच्छेदाय जायते । पारंपर्येण यो बन्धः स प्रबन्धाद्विधीयते ॥ ५४ 345) द्रव्यस्त वे' भवति यद्यपि को ऽपि दोषः क्वाप्यागमे कथितो तिलघुस्तथापि । कृत्यो' गुणाय महते स न किं चिकित्साक्लेशो गदापगमनाय बुधैविधेयः ॥ ५५ 346) लोकोत्तरे गुणगणे बहुमानबुद्धिः शुद्धिः परा स्वमनसो मनुजोत्तमत्वम् । स्याद्वमं सिद्धिरखिले जगति प्रसिद्धिः सिद्धिः क्रमेण जिनपूजनतो जनानाम् ॥ ५६ [ ५.५३ उत्तम कीर्ति का लाभ होता है, राजा उस के अनुकूल होते हैं, शत्रु सहायक होते हैं, उसका चित्त किसी अभूतपूर्व शान्ति को प्राप्त होता है, उसे प्रायः बहुत धन का लाभ होता है, तथा वह प्रचुर पापारम्भ से परिपूर्ण अनर्थों से निरर्थक कर्मों से विरक्त होता है । इस प्रकार धर्मारम्भ में तत्पर भव्य के ये प्रसिद्ध गुण हुआ करते हैं ॥ ५२ ॥ श्रावक चूंकि मिथ्यात्व से, प्रमाद से अथवा कषाय से द्रव्यस्तव में - पूजा - प्रतिष्ठा एवं दानादिरूप बाह्यसंयम में - प्रवृत्त नहीं होता है, इसीलिये उसको अशुभ का बन्ध नहीं होता है ॥ ५३ ॥ शुभबन्ध शुभानुबन्धी होता है । इसलिये बन्धच्छेद के लिये परम्परा से जो बन्ध कारण हो जाता है वह विपुल प्रमाण से करना चाहिये ( ? ) ॥ ५४ ॥ यद्यपि द्रव्यस्तव में कुछ - आरम्भजनित दोष होता है, ऐसा किसी आगम में निर्दिष्ट भी किया गया है तो भी वह चूँकि अतिशय अल्प होता है, इसलिये उस दोष की अपेक्षा गुण की अधिकता को देखकर उस द्रव्यस्तव को करना चाहिये। ठीक है- क्या विवेकी जन रोग को दूर करने के लिये चिकित्सा के क्लेश को नहीं सहन करते हैं ? ॥ ५५ ॥ जिनपूजन से मनुष्यों को क्रम से अलौकिक गुणसमूह में अतिशय आदर की बुद्धि, अपने अन्तःकरण की उत्कृष्ट विशुद्धि, मनुष्यों में श्रेष्ठता, धर्म की प्राप्ति, समस्त लोक में प्रसिद्धि और अन्त में मुक्ति भी प्राप्त होती है ॥ ५६ ॥ ५३ ) 1 श्रावक : 2 दाने । ५५ ) 1 दाने 2 करणीय ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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