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- दानफलम् - 347) देवाधिदेवपदपङ्कजयुग्मपूजां
छत्राद्यवाद्यकुसुमै रचयन्त्यजस्रम् । मृत्वा गतामरगतौ किल दुर्गतालं
स्त्रीत्वादि पूजनफलं समयप्रसिद्धम् ॥ ५७ 348) किंचागमो विधिनिषेधविधायको' ऽत्र
पारत्रिके खलु विधौ सुधियां प्रमाणम् । द्रव्यस्तवे ऽस्ति स च नास्ति च युक्तिबाधा
संसाधिकाधिकमतेः क्रमते च युक्तिः ॥ ५८ 349) संप्राप्य ये नरभवं जिनशासनं च
संसारसागरविलङ्घनयानपात्रम् । द्रव्यस्तवं परिहरन्ति जनास्तरां ते चिन्तामणिं समधिगम्य परित्यजन्ति ॥ ५९
जो भक्त इन्द्रादिक देवों के भी देव ऐसे श्री जिनेश के चरणकमलयुगल की पूजा छत्र आदि वादित्र, और पुष्पों से निरन्तर करते हैं वे मर कर के देवगति में जन्म लेते हैं । वहाँ से उन्हें मनुष्य लोक में स्त्रीत्व व दरिद्रता आदिक नहीं प्राप्त होते हैं । पूजन का यह फल आगम में प्रसिद्ध है ॥ ५७ ॥
पारलौकिक विधिके विषय में विधान अथवा निषेध को करनेवाला जो आगम विद्वानों को प्रमाण है, वह द्रव्यस्तव के विधान में उपलब्ध होता है और इसमें युक्ति से कुछ बाधा भी नहीं आती है। अपि तु जो विशेष विद्वान् हैं उनकी युक्ति उक्त द्रव्यस्तव की सिद्धि करने में हि प्रवृत्त होती है ॥५८॥
जो संसारसमुद्र के पार कराने में नौका के समान जैनधर्म और मनुष्यभव को प्राप्त कर के द्रव्यस्तव से विरत रहते हैं, वे मनुष्य मानो चिन्तामणि को प्राप्त करके उसे यों ही छोड देते हैं ॥ ५९॥
५७) 1 दुर्गति. सोमा ब्राह्मणीकी सासू षट् कर्मोपदेशग्रन्थे जलपूजाकथायां प्रसिद्धा कथा। ५८) द्र व्यस्तवभावस्तव । ५९) 1 दानम्. 2 P °जनास्त एते. ३ प्राप्य ।